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सोमवार, 23 नवंबर 2009

माल हमारा, ऐश करे पाक !!


बेलगाम मंहगाई ने देशवासियों का दम निकाल दिया है। सरकार इस पर काबू पाने में असमर्थ नजर आ रही है। देश में खाद्य पदार्थो की भारी किल्लत है। लाख कोशिशों के बावजूद मंहगाई से त्रस्त लोगों को राहत का रास्ता नहीं सूझ रहा है। इसके बावजूद पाकिस्तान को टमाटर, लहसून समेत कई चीजें आधे दामों पर निर्यात किया जा रहा है। बताया जा रहा है कि अंतरराष्ट्रीय करार के तहत ऐसा करना हमारी मजबूरी है।

भारतीयों को 60 रुपये प्रति किलो [फुटकर] मिलने वाला टमाटर पाकिस्तान को 17 रुपये प्रति किलो की दर से निर्यात किया जा रहा है। इसी तरह देश में लहसुन के लिए सौ रुपये प्रति किलो [फुटकर] अदा करने पड़ते हैं, वहीं पाकिस्तानियों को यही लहसुन महज 35 रुपये किलो ग्राम के हिसाब से भेजा जा रहा है।

इस बीच पाकिस्तान ने फिर भारत से आलू की मांग की है। पाकिस्तान स्थित पेप्सी कंपनी ने 700 टन आलू मांगा है। रविवार को आलू की पहली खेप भेजी गई है।

भारतीय व्यापारी अनिल मेहरा ने बताया कि पाक स्थित पेप्सी कंपनी ने फिर 700 टन आलू मंगवाया है। इसके लिए दो दिन पहले ही उनकी फर्म के साथ करार हुआ है। जबकि पाकिस्तान टमाटर भी फिर से मांग रहा है। टमाटर व लहसुन भारत में मंहगा होने के बावजूद क्यों भेजा जा रहा है। इस सवाल पर मेहरा कहते हैं कि यह अंतरराष्ट्रीय व्यापार की मजबूरी है। जो सौदा पहले हो जाता है, उसे उसी समय के रेट में भेजना पड़ता है। भारत की मंडी में तेजी चल रही है। इसके बावजूद करार तोड़ा नहीं जा सकता। इसलिए मुनाफे के चक्कर में घाटा भी उठाना पड़ता है।

रविवार को अटारी सड़क सीमा के रास्ते तीन ट्रक आलू, पांच ट्रक सोयाबीन, दो ट्रक लहसुन, एक ट्रक टमाटर, दो ट्रक हरी मिर्च पाकिस्तान भेजी गई।

अमृतसर चेंबर आफ कार्मस के महासचिव राजेश सेतिया कहते हैं कि भारत-पाकिस्तान के बीच व्यापार अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर होता है। डालर के हिसाब से सारा कारोबार होता है। ऐसे में पहले से करार होने के चलते दाम कम-ज्यादा होने के बावजूद वहाँ भेजना या मंगवाना तो पड़ता ही है

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यह समझ नहीं आता कि कैसे भारत ने हर उस समझोते पर अपनी मोहर लगाई है जिस में पाकिस्तान का फायेदा है ?? एक तरफ़ अपने देश की जनता है जो अपनी दाल - रोटी भी बड़ी मुश्किल से चला पा रही है दूसरी और पाकिस्तान की जनता है जो हमारे देश का खा खा कर हमको ही आँखे दिखाती है ! वैसे अपनी सरकार भी मजबूर है सस्ते में माल दें तो क्या करे ..........?? माल देने की सूरत में वह लोग खाने यहाँ जाते है अपने साथीयों के साथ...........और ऊपर से नखरे इतने कि साहब खायेगे तो 'ताज' या 'ट्रिडेंट' में ही खायेगे कहीं और नहीं और वह भी ज़ोर ज़बरदस्ती से !!

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ठीक है जी मान लो आप उनकी बात .............पर कम से कम हम लोगो को भी कुछ खाने दो ..........कुछ हम को भी सस्ता दिलवा दो ............मान भी जाओ........हमारी तरफ़ कब तक मुंह कर के सोते रहोगे ..................जागो सोने वालों .....................


शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

इतिहास रचने को तैयार नौसेना की दो महिला अफसर


नौसेना की दो महिला अफसर 20 नवंबर को भारत की सशस्त्र सेनाओं के इतिहास का नया अध्याय लिखेंगी। नौसेना के इतिहास में यह पहला मौका होगा जब दोनों महिला अफसर अपना प्रशिक्षण पूरा कर मोर्चे पर तैनात होंगी।

शार्ट सर्विस कमीशन [एसएससी] के जरिए चुनी गईं सब लेफ्टिनेंट सीमा रानी शर्मा और अंबिका हुडा नौसेना की पहली महिला विमानन पर्यवेक्षक होंगी। इन दोनों को 56 साल पहले गठित नौसेना की विमानन इकाई के मेरीटाइम पेट्रोल एयरक्राफ्ट [एमपीए] दस्ते में पर्यवेक्षक कांबेट अफसर के रूप में तैनात किया जाएगा।

एसएससी में चयन के बाद उन्हें शुरू में भारतीय नौसेना अकादमी में प्रशिक्षण दिया गया। इसके बाद उन्हें यहां आईएनएस गरुण में स्थित आब्जर्वर स्कूल में प्रशिक्षण मिला। अपनी 16 महीने की ट्रेनिंग के दौरान दोनों महिला अफसरों ने डोर्नियर विमान उड़ाने के अलावा विभिन्न तरह का प्रशिक्षण लिया। नौसेना सूत्रों के अनुसार दोनों महिला अफसर विभिन्न हथियार, सेंसर्स व राडार बखूबी संचालित करती हैं और विमान उड़ाने में सक्षम हैं।

20 नवंबर को यहां एक समारोह के बाद दोनों को नौसेना के सामुद्रिक निगरानी स्क्वाड्रन में शामिल कर लिया जाएगा। यह दस्ता देश की सामुद्रिक सीमाओं की निगरानी का काम करता है।

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अब भी जिन साहब को कोई शक हो कि लड़कियां भी लडको के कंधो से कन्धा मिला कर चल सकती है कि नहीं ........................तो साहब एक ही बात कहनी है आपसे ......................जागो सोने वालों .............

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

काहे का बाल दिवस ??


आजादी के छह दशक से अधिक समय गुजरने के बावजूद आज भी देश में सबके लिए शिक्षा एक सपना ही बना हुआ है। देश में भले ही शिक्षा व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त बनाने की कवायद जारी है, लेकिन देश की बड़ी आबादी के गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करने के मद्देनजर सभी लोगों को साक्षर बनाना अभी भी चुनौती बनी हुई है।

सरकार ने हाल ही में छह से 14 वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों के लिए अनिवार्य एवं मुफ्त शिक्षा प्रदान करने का कानून बनाया है, लेकिन शिक्षाविदों ने इसकी सफलता पर संदेह व्यक्त किया है क्योंकि देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा अभी भी अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जद्दोजहद में लगा हुआ है।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी शिक्षा का अधिकार कानून लागू करने के लिए देश में दस लाख अतिरिक्त शिक्षकों की जरूरत पर जोर देते हुए शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों की संख्या में वृद्धि और व्यापक शिक्षा के लिए आईसीटी के इस्तेमाल के अलावा शिक्षण के पेशे की गरिमा और मान सम्मान को बहाल करने की आवश्यकता बताई है।

इग्नू के जेंडर एजुकेशन संकाय की निदेशक सविता सिंह ने कहा कि गरीब परिवार में लोग कमाने को शिक्षा से ज्यादा तरजीह देते हैं। उनकी नजर में शिक्षा नहीं बल्कि श्रम कमाई का जरिया है।

सिंह ने कहा, ग्रामीण और सुदूर क्षेत्रों में निवास करने वाले लोगों के जीवनस्तर में सुधार किए बिना शिक्षा के क्षेत्र में कोई भी नीति या योजना कारगर नहीं हो सकती है बल्कि यह संपन्न वर्ग का साधन बन कर रह जाएगी। आदिवासी बहुल क्षेत्र में नक्सलियों का प्रसार इसकी एक प्रमुख वजह है।

सरकार के प्रयासों के बावजूद प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की स्थिति चुनौतीपूर्ण बनी हुई है। इनमें बालिका शिक्षा की स्थिति गंभीर है।

विश्व बैंक की हालिया रपट में भारत में माध्यमिक शिक्षा की उपेक्षा किए जाने पर जोर देते हुए कहा गया है कि इस क्षेत्र में हाल के वर्षो में निवेश में लगातार गिरावट देखने को मिली है।

भारत में माध्यमिक शिक्षा पर विश्व बैंक रपट में माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में निवेश में गिरावट का उल्लेख किया गया है। शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले खर्च का जहां प्राथमिक शिक्षा पर 52 प्रतिशत निवेश होता है वहीं दक्ष मानव संसाधान को तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में कुल खर्च का 30 प्रतिशत ही निवेश होता है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षा के कुल खर्च का 18 प्रतिशत हिस्सा आता है।

भारत में माध्यमिक स्तर पर 14 से 18 वर्ष के बच्चों का कुल नामांकन प्रतिशत 40 फीसदी दर्ज किया गया जो पूर्वी एशिया और लैटिन अमेरिका में वैश्विक प्रतिद्वन्दि्वयों के कुल नामांकन अनुपात से काफी कम है।

भारत से कम प्रति व्यक्ति आय वाले वियतनाम एवं बांग्लादेश जैसे देशों में भी माध्यमिक स्तर पर नामांकन दर अधिक है।

उच्च शिक्षा की स्थिति भी उत्साहव‌र्द्धक नहीं है। फिक्की की ताजा रपट में कहा गया है कि महत्वपूर्ण विकास के बावजूद भारतीय उच्च शिक्षा प्रणाली में कई तरह की खामियां हैं जो भविष्य की उम्मीदों के समक्ष चुनौती बन कर खड़ी है।

रपट के अनुसार इन चुनौतियों में प्रमुख उच्च शिक्षा के वित्त पोषण की व्यवस्था, आईसीटी का उपयोग, अनुसंधान, दक्षता उन्नयन और प्रक्रिया के नियमन से जुड़ी हुई है।

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सकल नामांकन दर की खराब स्थिति को स्वीकार करते हुए मानव संसाधन विकास मंत्री ने कहा कि स्कूल जाने वाले 22 करोड़ बच्चों में केवल 2.6 करोड़ बच्चे कालेजों में नामांकन कराते हैं। इस तरह से 19.4 करोड़ बच्चे स्कूली शिक्षा से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं।

सरकार का लक्ष्य उच्च शिक्षा में सकल नामांकन दर को 12 प्रतिशत से बढ़ा कर 2020 तक 30 प्रतिशत करने का है। इन प्रयासों के बावजूद 6।6 करोड़ छात्र ही कालेज स्तर में नामांकन करा पाएंगे, जबकि 15 करोड़ बच्चे कालेज स्तर पर नामांकन नहीं जा पाएंगे।

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क्या एसे ही 'बाल दिवस' मनाया जाएगा ?? मतलब मालूम है किसी नेता को 'बाल दिवस' का .......क्यों मनाया जाता है यह ?? क्या भावना थी 'बाल दिवस' मानाने के पीछे ??? कोई जवाब देगा क्या .............???

शायद आज के भारत में किसी भी नेता के पास इसका कोई जवाब नहीं है !! होगा भी कैसे ?? जो नेता अपने नेताओ को भूल गए वो उनकी बातो को याद रखेगे ...............न.. न ... हो ही नहीं सकता ........टाइम कहाँ है इतना ....और भी काम है .......बड़े आए 'बाल दिवस' मानाने .........कल आ जाना .....मूंछ दिवस के लिए ........तुम सब के सब हो ही ठलुआ ........चलो भागो यहाँ से !! यहाँ अपने लिए टाइम नहीं है और यह आए है 'बाल दिवस' मानाने ??

अच्छा सुनो जब आ ही गए हो तो P.A से मिल लो .......कुछ करवा देते है ........अरे कुछ और नहीं तो बच्चा सब टाफी तो खा ही लेगा .........है कि नहीं ?? अब खुश माना दिए न तुम्हारा 'बाल दिवस' !! अब जाओ बहुत काम बाकी है देश का निबटने को !!

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वैसे यह नेता ठीक कहते है क्या लाभ है 'बाल दिवस' मानाने का ?? जब आज भी हम इन बच्चो को वह माहौल नहीं दे पाये जब यह दो वक्त की रोटी की चिंता त्याग शिक्षा पर ध्यान केन्द्रित कर पाए ! 'बाल दिवस' केवल मौज मस्ती के लिए तो नहीं था ........इसका मूल उद्देश तो हर बच्चे तक सब सरकारी सुविधाओ को पहुँचाना था .......कहाँ हो पाया यह आज़ादी के ६२ साल बाद भी ............जागो सोने वालों ............

श्रद्धांजलि देने का नायाब तरीका


ब्रिटेन के एक पूर्व सैनिक ने अफगानिस्तान में मारे गए सैनिकों को श्रद्धांजलि देने का नायाब तरीका खोजा है। शान क्लार्क अपने शरीर पर अब तक अफगानिस्तान में मारे गए 223 सैनिकों के नाम गुदवा चुके हैं। उनकी ख्वाहिश है कि वह ऐसे प्रत्येक सैनिक का नाम गुदवाएं। उन्होंने बताया कि उन्हें पहला नाम गुदवाने में थोड़ा दर्द हुआ लेकिन उसके बाद वह सैनिकों को याद करते हुए चार घंटे तक अपने शरीर पर नाम गुदवाते रहे।

क्लार्क का यह सिलसिला यहीं खत्म होने वाली नहीं है। अभी कई शहीद सैनिकों के नाम बाकी हैं। क्लार्क 1989 से 1996 तक ब्रिटेन की लाइट इनफेंटरी रेजीमेंट में सेवा दे चुके हैं। उन्होंने कहा कि इसके लिए मुझे कुछ दिन की पीड़ा सहनी पड़ेगी। लेकिन मेरा दर्द सैनिकों और उनके परिवार वालों के दर्द के आगे बहुत कम है। उनके देशप्रेम को देखते हुए टैटू बनाने वाले ने उनसे कोई शुल्क नहीं लिया। उसका कहना है कि वो भी क्लार्क की मदद करना चाहता है।

क्लार्क का इरादा न सिर्फ सैनिकों को श्रद्धांजलि देना है, बल्कि वह इसके जरिए कुछ पैसे कमाकर सैनिकों के परिवार वालों की मदद भी करना चाहते हैं। उन्होंने बताया, 'इस हरकत को देखकर मेरे परिवार का मानना था कि मैं पागल हो चुका हूं। लेकिन अब वो भी मेरे साथ हैं। मेरी बीवी मुझे हमेशा इसके लिए प्रोत्साहित करती रहती है।' दो बच्चों के पिता क्लार्क को उम्मीद है कि इसके जरिए वह 'हेल्प फार हीरोज' चैरिटी को 500 पौंड [करीब 40 हजार रुपये] तक कमाकर दे सकेंगे। उन्होंने कहा कि अपने शरीर के आधे भाग पर 223 नाम गुदवाना कुछ अटपटा जरूर लगता है लेकिन यह मेरा अपना तरीका है।

बकौल क्लार्क, 'सैनिकों की मदद कई लोग करते हैं लेकिन मैं कुछ अलग करना चाहता था। यह केवल पैसा कमाने के लिए नहीं है बल्कि इसके जरिए मैं जनता को उन लोगों की याद दिलाना चाहता हूं जिनकी वजह से उसकी आजादी बरकरार है।' इसके अलावा क्लार्क ने चैरिटी के लिए वेबसाइट भी जारी की है। उनकी वेबसाइट पर कई लोगों की प्रतिक्रियाएं भी आ चुकी हैं। सभी ने क्लार्क के इस कदम को सराहनीय बताया है।

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हर एक का देश प्रेम अलग अलग होता है - किसी में कम तो किसी में ज्यादा - पर होता जरूर है | आपने कभी सोचा यह आता कहाँ से है ?? वह कौन सी बात है जो हमे 'देश प्रेमी' बनाती है ?? क्या है वह जज्बा कि हम अपने देश के नाम को सुनते ही भावुक जाते है और इस के खिलाफ कुछ भी बर्दाशत करना गवारा नहीं करते ??

शायद इन सब बातो का केवल एक ही जवाब है और वह है हमारे 'संस्कार' !!

बचपन से ही हमे यह सिखाया जाता है कि अपने देश से प्रेम करो और अगर जरूरत आ पड़े तो इसके लिए बलिदान हो जाओ | बाकी सब सीखों कि तरह यह भी एक सीख ही है पर एक अलग दर्जे की - यह विश्व पटल पर आपकी पहचान से जुड़ी हुयी है ! इस लिए हमे यह कोशिश करनी चाहिए कि हम भी अपने बच्चो को एसे ही संस्कार दे कि आगे चल कर वह हमारा ही नहीं बल्कि देश का भी नाम रोशन करे |

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दिनांक :- ०१/११/२००९ ; स्थान :- इंडिया गेट ; समय :- शाम के ७ बजे - एक १७ - १८ साल की लड़की मोबइल पर 'किसी' को अपनी लोकेशन बता रही है," मैं इंडिया गेट पर हूँ ......कहाँ से क्या मतलब ??.......इंडिया गेट पर ......अच्छा वैसे ....वो जहाँ वो आग जल रही है न ........दिख रहा है .......बस उसी के सामने !!"

आप समझे मैडम कहाँ खड़ी थी ?? जी हाँ ..............सही समझे ........'अमर जवान ज्योति' के सामने !! थोड़ा अजीब तो आप को भी लगा होगा कि कैसे बड़े आराम से 'अमर जवान ज्योति' को सिर्फ़ मामूली सी जलती आग का रूप दे दिया गया ! पर क्या करे साहब यही तो है आज की 'जेनरेशन Y' !

तो सिर्फ़ एक विनती है आप भले ही किसी भी जेनरेशन के क्यों न हो पर रहेंगे तो भारतीय ही न सो अपने देश के प्रति सोये हुए अपने देश प्रेम को जगाये और विश्व में अपना और अपने देश का नाम रोशन करे |

वैसे जब जब जरूरत पड़ी हम तो अपनी आदत अनुसार कहते ही रहेगे.........जागो सोने वालों ........


सोमवार, 9 नवंबर 2009

महाराष्ट्र विधानसभा में एमएनएस की गुंडागर्दी


समाजवादी पार्टी के विधायक अबू असीम आजमी के हिंदी में शपथ लेने पर महाराष्ट्र विधानसभा में सोमवार को महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना [मनसे] के विधायकों ने जम कर हंगामा किया। मनसे ने सभी विधायकों से मराठी में षपथ लेने को कहा था। हंगामे के दौरान राज ठाकरे की पार्टी के एक सदस्य ने आजमी को थप्पड़ भी मार दिया।

आजमी के हिंदी में शपथ लेने पर मनसे के सभी 13 सदस्य आजमी की ओर दौड़े और माइक छीन लिया। वे आजमी के मराठी में शपथ लेने की मांग को लेकर नारे लगाने लगे। इसके बाद भी हंगामा जारी रहा और मनसे के विधायक राम कदम ने आजमी को थप्पड़ मार दिया। इसके चलते सदन को आधे घंटे के लिए स्थगित कर दिया गया।

मुख्यमंत्री अशोक चह्वाण और ऊर्जा मंत्री अजीत पवार ने सदन में शांति कायम रखने की कोशिश की। मनसे प्रमुख राज ठाकरे ने पिछले महीने घोषणा की थी कि उनकी पार्टी के सदस्य सुनिश्चित करेंगे कि सभी विधायक मराठी में शपथ लें। राज ने चेतावनी दी थी कि अगर कोई विधायक मराठी में शपथ नहीं लेगा, तो सदन देखेगा कि क्या होता है।

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आज सब ने देख लिया कि भारत में कुछ भी हो सकता है ! मैं यहाँ भारत इस लिए कह रहा हूँ कि मैं यही मानता हूँ कि महाराष्ट्र भारत का ही एक अंग है !! गौर कीजियेगा मैंने महाराष्ट्र को भारत का एक अंग बताया है ............मैं किसी भी रूप में यह नहीं कह रहा हूँ कि भारत महाराष्ट्र का एक अंग है !! अगर इस भारत में अंग्रेजी को मान्यता मिली हुयी है तो बेचारी हिन्दी ने 'आपके' कौन से खेत खाए है ??

भरे सदन में किसी विधायक को मार खानी पड़े तो जनता खुश जरूर होगी पर 'आपको' यह ग़लत ख़बर कैसे लग गई कि मार खाने का कारण हिन्दी में शपथ लेना होना चाहिए ?? विधायक काम करे ....जनता का हित करे....गबन करे ............ - हमारी तरफ़ से भी लगवा देते तो कोई बात थी पर सिर्फ़ इस बात पर पिटवा दिया कि हिन्दी में कैसे बोला यह बात कुछ हज़म नहीं हुयी होगी 'आपके' 'मराठी मानुष' को भी अगरचे 'वो' 'मानुष' है तो !? अब 'आपके' ९ 'आमदार'......यही कहते है न 'आप' अपने विधायको को ............सदन में क्या क्या करने का प्लान बना रहे है यह तो 'आप' ही जानते होगे या आपके यह 'आमदार' पर बस इतना जान लीजिये जो भी हुआ किसी भी नज़रिए से तारीफ के काबिल नहीं था !! आज १३ सीट जीत कर 'आप' सदन को अपने मनमाने तरीके से चलवाने कि सोच रहे है उस दिन आप कहाँ थे जब 'आपका' यही 'मराठी मानुष' AK-४७ से निकली हुयी गोलियों का सामना कर रहा था 'आपके' ही महाराष्ट्र में ?? कितने मानुषो के घावो पर मरहम लगाने गए थे 'आप' बतायेगे ज़रा ?? क्या कहा याद नहीं ...........बहुत कमजोर है 'आपकी' यादाशत ......अभी पूरा एक साल भी तो नहीं हुआ है !! वैसे 'आप' सही है सुखद यादे रखनी चाहिए दुखद नहीं.....है न ??

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महाराष्ट्र सरकार अब चाहे कुछ भी सफाई दे आज की घटना पर दोषी तो वो भी है ........इतनी भी दूरदर्शिता नहीं थी कि सदन में एसा कुछ भी हो सकता है ?? क्या एसे ही आप सरकार चलायेगे ....सोते सोते और जो भी होता है होने दो ?? राष्ट्र की सोचे 'आपका' महाराष्ट्र तब ही रहेगा न जब भारत राष्ट्र रहेगा ................ २६/११ की बरसी पर फ़िर खतरा है सो....... जागो सोने वालों ...........


रविवार, 8 नवंबर 2009

वीआईपी सुरक्षा को लेकर उठे सवाल

चंडीगढ़ के पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन [पीजीआई] में गंभीर अवस्था में लाए गए एक मरीज को, वहां एक समारोह के सिलसिले में गए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सुरक्षा के चलते प्रवेश की अनुमति न मिलने से हुई मौत की घटना के बाद सवाल उठ रहे हैं कि क्या वीआईपी सुरक्षा एक आम आदमी की जान से अधिक महत्वपूर्ण है।

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान [एम्स] के आर्थोपेडिक विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डा सी एस यादव कहते हैं कि वीआईपी सुरक्षा महत्वपूर्ण व्यक्ति को ही दी जाती है इसलिए इसके साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता। लेकिन मरीज की जान बचाना भी अस्पताल की जिम्मेदारी है। उन्होंने कहा कि एम्स में अक्सर वीआईपी, मंत्री, सांसद इलाज के लिए आते हैं। उनकी अपनी सुरक्षा होती है और अस्पताल की अपनी सुरक्षा होती है। पीएम को एसपीजी की सुरक्षा मिली हुई है। उनके कमांडो बहुस्तरीय सुरक्षा घेरा बनाते हैं। लेकिन अपरिहार्य परिस्थितियों में मरीज को जाने दिया जाता है। मरीज इलाज के लिए ही अस्पताल आते हैं। समझौता न पीएम की सुरक्षा के साथ किया जा सकता है और न ही मरीज के स्वास्थ्य के साथ।

डा यादव ने कहा कि वीआईपी सुरक्षा और अस्पताल प्रशासन के बीच सांमजस्य होने पर आम मरीजों को किसी भी तरह की दिक्कत होने का सवाल ही नहीं उठता। ग्लोबल हास्पिटल की इन्फर्टिलिटी स्पेशलिस्ट डा अर्चना धवन बजाज कहती हैं कि प्रधानमंत्री महत्वपूर्ण हस्ती हैं, इसलिए उनकी सुरक्षा जरुरी है लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि मरीजों को इससे दिक्कत न हो। अगर शहर के एक प्रतिष्ठित अस्पताल में गंभीर अवस्था में लाए गए एक मरीज को केवल इसलिए प्रवेश न दिया जाए कि वहां कोई वीआईपी हस्ती है तो मेरी राय में यह अस्वीकार्य है।

डा अर्चना सवाल करती हैं कि आपात सेवाएं किसके लिए और क्यों रहती हैं। आपात स्थिति में इन सेवाओं का मरीजों के लिए ही इस्तेमाल न हो तो इनकी उपयोगिता क्या होगी। अगर अस्पताल परिसर में आयोजित समारोह में आए प्रधानमंत्री की सुरक्षा से मरीजों को दिक्कत हो तो समारोह अन्यत्र करना बेहतर होगा। समारोह से ज्यादा महत्वपूर्ण मरीज की जान होती है। डा अर्चना ने बताया कि प्रसिद्ध क्रिकेटर वीरेंद्र सहवाग की पत्नी जब गर्भवती थीं तो यह जोड़ा उनके पास नियमित जांच के लिए आता था। वह कहती हैं 'सहवाग दंपती अक्सर रात को आते थे ताकि उनकी वजह से अस्पताल में कोई परेशानी न हो। किसी को पता ही नहीं चलता था कि यह जोड़ा आया है। जब उनकी पत्नी ने बेटे को जन्म दिया, तब भी किसी को पता नहीं चल पाया था।

सफदरजंग अस्पताल के मेडिकल सुपरिटेंडेंट डा के टी भौमिक कहते हैं कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा एसपीजी के तहत आती है इसलिए उनके नियमों का पालन करना होगा। उनकी सुरक्षा एसपीजी कमांडो अपने तरीके से करते हैं और अस्पताल प्रशासन उनकी बहुस्तरीय सुरक्षा व्यवस्था में कोई हस्तक्षेप नहीं करता। उन्होंने बताया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक बार सफदरजंग अस्पताल आए थे। सरोजिनी नगर में हुए बम विस्फोट से घायल मरीजों की खैरियत पूछने। तब उनकी सुरक्षा को लेकर किसी तरह की अफरातफरी नहीं हुई थी। जहां तक हमने सुना है, प्रधानमंत्री खुद कहते हैं कि उनकी सुरक्षा की वजह से लोगों को परेशानी नहीं होनी चाहिए।

डा अर्चना कहती हैं कि अस्पताल के लिए मरीज की जान बचाना उतना ही महत्वपूर्ण है जितनी वीआईपी सुरक्षा महत्वपूर्ण है। डा भौमिक के अनुसार 'अस्पताल प्रशासन वीआईपी सुरक्षा के साथ सामंजस्य स्थापित कर ले तो मरीजों को दिक्कत होने का सवाल ही नहीं उठता।'

डा यादव कहते हैं कि वीआईपी सुरक्षा का अनुभव न होने पर कोई दुर्भाग्यपूर्ण घटना हो सकती है लेकिन मरीज की जान बचाना अस्पताल की पहली प्राथमिकता होती है।

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इस घटना से नेताओ को सबक लेना चाहिए कि एक 'आम आदमी' की जान भी उतनी ही कीमती है जितनी कि उनकी ! किसी भी नेता में और एक आम आदमी में अगर कुछ फर्क होता है तो सिर्फ़ 'सत्ता' का | एक 'आम आदमी' का वोट ही इन नेताओ को इतना 'महत्वपूर्ण' बनता है कि उनको और उनके परिवार को 'वीआईपी सुरक्षा' दी जाती है पर उनकी यही 'वीआईपी सुरक्षा' अगर किसी निर्दोष 'आम आदमी' की मौत का कारण बन जाए तो यह सवाल उठाना लाज़मी हो जाता है की आख़िर असली 'वीआईपी' कौन है - एक 'नेता' या एक 'आम आदमी' ??

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कुछ लोगो का मानना है कि गलती सुरक्षा कर्मियों की थी जबकि एसा है नहीं गलती सरासर इन 'वीआईपी' लोगो की है जो अपने आगे किसी को भी कुछ नहीं समझते फ़िर एक आम आदमी की तो बिसात ही क्या ???

पर महाराज .......जाग जाओ 'आम आदमी' अब उतना 'आम' भी नहीं रह गया है वो भी अब 'वीआईपी' हो गया है....बाकी तुम्हारी मर्ज़ी .....अपनी तो आदत है सो कहते है .......जागो सोने वालों.......

बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

विश्व में कहां ठहरते हैं हमारे विश्वविद्यालय


पिछले सप्ताह जब से 'द टाइम्स-क्यूएस' की दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैंकिंग जारी हुई है, देश में अपने विश्वविद्यालयों की दशा को लेकर हंगामा मचा हुआ है। वजह यह कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ पहले 10 या 50 या 100 या फिर 150 विश्वविद्यालयों की सूची में भारत का कोई विश्वविद्यालय जगह नही बना पाया है।
यही नहीं, सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों की सूची में 163वें स्थान पर आईआईटी मुंबई और 181वें स्थान पर आईआईटी दिल्ली को जगह मिल सकी है, जबकि लोकप्रिय और वास्तविक अर्थो में आईआईटी को विश्वविद्यालय नहीं माना जाता है।
यह सचमुच चिंता और अफसोस की बात है कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों की सूची में दो आईआईटी को छोड़कर देश का कोई विश्वविद्यालय जगह बना पाने में कामयाब नहीं हुआ है। इससे देश में उच्च शिक्षा की मौजूदा स्थिति का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है, लेकिन इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है।
ऐसा नहीं है कि यह सच्चाई सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैंकिंग जारी होने के बाद पहली बार सामने आई है। यह एक तथ्य है कि पिछले कई वर्षो से जारी हो रही इस वैश्विक रैंकिंग में भारत के विश्वविद्यालय अपनी जगह बना पाने में लगातार नाकामयाब रहे हैं।
सवाल है कि इस वैश्विक रैंकिंग को कितना महत्व दिया जाए? यह भी एक तथ्य है कि 'द टाइम्स-क्यूएस' की विश्वविद्यालयों की सालाना वैश्विक रैकिंग रिपोर्ट और ऐसी अन्य कई रिपोर्टो की प्रविधि और चयन प्रक्रिया पर सवाल उठते रहे हैं। इस रैकिंग में विकसित और पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों के प्रति झुकाव और आत्मगत मूल्याकन की छाप को साफ देखा जा सकता है, लेकिन इन सबके बावजूद दुनिया भर के शैक्षणिक समुदाय में इस वैश्विक विश्वविद्यालय रैंकिंग की मान्यता और स्वीकार्यता बढ़ती ही जा रही है। उसकी अपनी ही एक करेंसी हो गई है।
दरअसल, इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि पिछले दो दशकों में उच्च शिक्षा का जो वैश्विक बाजार बना है, उसके लिए विश्वविद्यालयों की इस तरह की रैंकिंग एक अनिवार्य शर्त है। यह रैंकिंग वैश्विक शिक्षा बाजार के उन उपभोक्ताओं के लिए है, जो बेहतर अवसरों के लिए विश्वविद्यालय चुनते हुए इस तरह की रैंकिंग को ध्यान में रखते हैं।
निश्चय ही, इस तरह की रैंकिंग से सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों को न सिर्फ संसाधन जुटाने में आसानी हो जाती है, बल्कि वे दुनिया भर से बेहतर छात्रों और अध्यापकों को भी आकर्षित करने में कामयाब होते हैं। इस अर्थ में, सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों की सूची में आईआईटी को छोड़कर एक भी भारतीय विश्वविद्यालय के न होने से साफ है कि भारत उच्च शिक्षा के वैश्विक बाजार में अभी भी आपूर्तिकर्ता नहीं, बल्कि उपभोक्ता ही बना हुआ है।
आश्चर्य नहीं कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद अभी भी देश से हर साल लाखों छात्र उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका से लेकर आस्ट्रेलिया तक के विश्वविद्यालयों की ओर रुख कर रहे हैं। यही नहीं, 'ब्रेन ड्रेन' रोकने और 'ब्रेन गेन' के दावों के बीच अब भी सैकड़ों प्रतिभाशाली शिक्षक और शोधकर्ता विदेशों का रुख कर रहे हैं।
इस मायने में वैश्विक विश्वविद्यालयों की यह रैंकिंग उच्च शिक्षा के कर्ता-धर्ताओं को न सिर्फ वास्तविकता का सामना करने का एक मौका देती है, बल्कि एक तरह से चेतावनी की घटी है। वह इसलिए कि दोहा दौर की व्यापार वार्ताओं के तहत सेवा क्षेत्र को व्यापार के लिए खोलने की जो बातचीत चल रही है, उसमें भारत अपने उच्च शिक्षा क्षेत्र को खोलने के लिए तत्पर दिख रहा है।
इस तत्परता का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में बुलाने के लिए कुछ ज्यादा ही उत्साहित दिख रहे हैं।
लेकिन सवाल यह है कि जब भारत और उसके विश्वविद्यालय वैश्विक शिक्षा बाजार में कहीं नहीं हैं तो उच्च शिक्षा का घरेलू बाजार विदेशी शिक्षा सेवा प्रदाताओं या विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए खोलने के परिणामों के बारे में क्या यूपीए सरकार ने विचार कर लिया है?
क्या ऐसे समय में, जब भारतीय विश्वविद्यालय विकास और गुणवत्ता के मामले में विकसित और पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों से काफी पीछे हैं, उस समय विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए देश के दरवाजे खोलने का अर्थ उन्हें एक असमान प्रतियोगिता में धकेलना नहीं होगा? क्या इससे देसी विश्वविद्यालयों के विकास पर असर नहीं पड़ेगा?
निश्चय ही इन सवालों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है, लेकिन ऐसा लगता है कि यूपीए सरकार उच्च शिक्षा में बुनियादी सुधार और बेहतरी के लिए देसी विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता बढ़ाने के वास्ते उन्हें जरूरी संसाधन और संरक्षण मुहैया कराने के बजाय गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का जिम्मा विदेशी विश्वविद्यालयों को सौंपकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहती है।
हालाकि कपिल सिब्बल उच्च शिक्षा में सुधार के बड़े-बड़े दावे कर रहे हैं, लेकिन सच्चाई यही है कि वे उच्च शिक्षा क्षेत्र में बुनियादी सुधार के बजाय जहां-तहां पैबंद लगाने की कोशिश कर रहे हैं। हकीकत यह है कि यूपीए सरकार को उच्च शिक्षा में पैबंद लगाने और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप और निजी क्षेत्र को बढ़ाने जैसे पिटे-पिटाए फार्मूलों को फिर से आजमाने के बजाय उन बुनियादी सवालों और समस्याओं से निपटने की ईमानदार कोशिश करनी चाहिए, जिनकेकारण उच्च शिक्षा एक शैक्षणिक जड़ता से जूझ रही है।
आज वास्तव में जरूरत यह है कि इस शैक्षणिक जड़ता को तोड़ने के लिए उच्च शिक्षा और विश्वविद्यालयों में शैक्षणिक पुनर्जागरण के लिए उपयुक्त माहौल बनाया जाए। इसके लिए विश्वविद्यालयों के व्यापक जनतात्रिक पुनर्गठन के साथ-साथ उन्हें वास्तविक स्वायत्तता और शैक्षणिक स्वतंत्रता उपलब्ध कराना जरूरी है।
असल में, आज देश में उच्च शिक्षा के सामने तीन बुनियादी चुनौतिया हैं- उच्च शिक्षा के विस्तार, उसमें देश के सभी वर्गो के समावेश और उसकी गुणवत्ता सुनिश्चित करने की। इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि सरकार उच्च शिक्षा के लिए पर्याप्त संसाधन और वित्तीय मदद मुहैया कराए, लेकिन अफसोस की बात यह है कि आर्थिक सुधारों की शुरुआत के बाद 90 के दशक में उच्च शिक्षा के बजट में लगातार कटौती हुई, जिसका नतीजा यह हुआ कि अधिकाश विश्वविद्यालयों में न सिर्फ पठन-पाठन पर असर पड़ा, बल्कि वे छोटी-छोटी शैक्षणिक जरूरतों और संसाधनों से भी महरूम हो गए।
एक अंतरराष्ट्रीय शोध रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया के विकसित देशों की तो बात ही छोड़ दीजिए, ब्रिक देशों [ब्राजील, रूस, भारत और चीन] में उच्च शिक्षा में प्रति छात्र सबसे कम व्यय भारत में होता है। आश्चर्य नहीं कि वैश्विक विश्वविद्यालयों की रैंकिंग में पहले 200 विश्वविद्यालयों की सूची में हमारे पड़ोसी देश चीन के कई विश्वविद्यालयों के नाम हैं, लेकिन भारत के विश्वविद्यालय उस सूची में जगह नहीं बना पाए।
ऊपर से तुर्रा यह कि यूपीए सरकार अब विश्वविद्यालयों को अपने बजट का कम से कम 20 प्रतिशत खुद जुगाड़ने के लिए कह रही है।
यही नहीं, इस समय उच्च शिक्षा पर बजट बढ़ाने और 11वीं पंचवर्षीय योजना में शिक्षा को सबसे अधिक महत्व देने के यूपीए सरकार के तमाम बड़े-बड़े दावों के बावजूद सच यह है कि सरकार उच्च शिक्षा पर जीडीपी का 0.39 प्रतिशत से भी कम खर्च कर रही है। इसकी तुलना में, चीन उच्च शिक्षा पर इसके तीन गुने से भी अधिक खर्च कर रहा है।
असल में, वैश्विक रैकिंग में जगह न बना पाने से अधिक चिंता की बात यह है कि आजादी के 60 सालों बाद भी उच्च शिक्षा के विस्तार की हालत यह है कि देश में विश्वविद्यालय जाने की उम्र के सिर्फ दस फीसदी छात्र ही कालेज या विश्वविद्यालय तक पहुंच पाते हैं, जबकि विकसित और पश्चिमी देशों में 35 से 50 फीसदी छात्र विश्वविद्यालयों में पहुंचते हैं। आश्चर्य नहीं कि मानव विकास सूचकाक में भी भारत 183 देशों की सूची में 134वें स्थान पर है।
आखिर मानव विकास में फीसड्डी होकर कोई देश सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैंकिंग में जगह कैसे बना सकता है?
 
जो हमसे हैं बेहतर

'द टाइम्स-क्यूएस' 2009 की इस रैंकिंग में अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी पहले स्थान पर बरकरार है। ब्रिटेन की कैंब्रिज यूनिवर्सिटी एक पायदान चढ़कर दूसरे स्थान पर आ गई है। वहीं, अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी एक पायदान खिसककर तीसरे नंबर पर पहुंच गई है। यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन को इंपीरियल कॉलेज, लंदन के साथ पाचवें स्थान पर संयुक्त रूप से जगह दी गई है।
रिपोर्ट में ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों की तारीफ कहा गया है कि इस रैंकिंग में ब्रिटेन ने अपना वजन बढ़ाया है, लेकिन इसके बावजूद वह अमेरिका से पीछे है। टाप-10 और टाप-100 में ब्रिटेन के क्रमश: चार और 18 विश्वविद्यालयों ने जगह बनाई है। टाप-100 में एशियाई विश्वविद्यालयों की संख्या 14 से बढ़कर 16 हो गई है। इनमें टोक्यो यूनिवर्सिटी ने इस रैंकिंग में शीर्ष 22वा स्थान हासिल किया है, जबकि हागकाग यूनिवर्सिटी को 24वा स्थान मिला है।
 
वहां शिक्षण के प्रति समर्पण ज्यादा है

पश्चिमी और यूरोपीय विश्वविद्यालयों का इतिहास भले ही 500-600 वर्ष पुराना हो, लेकिन पश्चिमी शिक्षा जिसे हम बार-बार आदर्श के रूप में देखते हैं, वह बहुत पुरानी नहीं हैं। इसमें समय के साथ बदलाव भी होते रहे हैं। दूसरे, विदेशों में उच्च शिक्षा में शोध को बहुत महत्व दिया जाता है।
ऐसा नहीं है कि विदेशों में लोग अध्यापन को पैसों से नहीं जोड़ते, लेकिन वहां अध्यापकों में शिक्षा के लिए समर्पण हमसे ज्यादा है। सबसे बड़ी बात तो यह भी है कि पश्चिमी देशों में शोधकार्यो को भी बढ़ावा दिया जाता रहा है। विश्वविद्यालय प्रशासन शोध से जुड़ी किसी भी जरूरतों में कोई कमी नहीं छोड़ते हैं।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रख्यात अर्थशास्त्री जेके मेहता अर्थशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष थे। उस समय जो लोग टॉप किया करते थे, उनका चयन विदेशी विश्वविद्यालयों में तदर्थ रूप से पढ़ाने के लिए हो जाया करता था। एक विद्यार्थी जिसका चयन विदेशी विश्वविद्यालय में शिक्षक और आईएएस, दोनों ही जगहों पर हो गया, वह मेहता साहब से सलाह लेने गया कि मैं किसी बतौर कैरियर अपनाऊं?
मेहता साहब ने पूछा- विश्वविद्यालय में तो तुम्हारा चयन स्थाई रूप से हो ही जाएगा। उसके बाद तुम रीडर बनना चाहोगे, और फिर प्रोफेसर। छात्र ने कहा, 'हां।' मेहता साहब ने कहा इसका मतलब तुम नौकरी करना चाहते हो शिक्षक नहीं बनना चाहते। जब नौकरी ही करना चाहते हो तो तुम्हारे लिए आईएएस ही ठीक है।
भारतीय विश्वविद्यालयों के प्रदर्शन में कमी का एक और जो बड़ा कारण है, वह यह कि हमारे यहां का अच्छा छात्र तो विदेश चला जाता है और औसत छात्र यहीं रह जाता है। जबकि हमारे यहां जो विदेशी छात्र आते हैं, वे सामान्य दर्जे के होते हैं। पहले जो अध्यापक होते थे, वे भले ही पीएचडी न हों, लेकिन शोध करने और सीखने के प्रति उनकी रुचि रहती थी। वह शिक्षा और छात्रों के भविष्य के प्रति गंभीर रहते थे, लेकिन अब इन प्रवृत्तियों में गिरावट आई है। इसके पीछे कहीं न कहीं सरकारी उदासीनता और लोगों की व्यक्तिगत स्तर पर मानसिकता में बदलावों को भी जिम्मेवार ठहराया जा सकता है।
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भाई साहब, जब यूपीए सरकार की पालनहार खुद और उनका बेटा तक विदेश में पढ़ा हुआ हो तो क्या फर्क पड़ता है अगर यहाँ का युवा भी विदेश जा कर पढना चाहे ?? हुआ करे 'ब्रेन ड्रेन' !! किस को फर्क पड़ता है यहाँ ?! अगर शिक्षा के ऊपर पड़ा कफ़न हटाया गया तो कौन झेलेगा आती हुयी बदबू को ?? चिंता है उच्च शिक्षा की मौजूदा स्थिति की जबकि बेसिक शिक्षा का हाल और भी बुरा है !!
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कपिल सिब्बल साहब, उच्च शिक्षा तो हमारे युवा तब लेगे ना जब उनके पास बेसिक शिक्षा हो ?? सो कदम कदम चले.... बहुत लम्बी कूदने की ना सोचे !! 
वैसे आप मंत्री है .....ज्यादा जानते है .....हम तो सिर्फ़ जनता है जो आप करोगे हमारी भलाई के लिए ही करोगे .....एसा हम मानते है !! 
बाकी कोई बात बुरी लगी हो तो अज्ञानी समझ माफ़ करे वह क्या है ना हमे तो उच्च शिक्षा मिली ही नहीं !! अपन तो बस एसे ही आदत के मारे कहते है .................जागो सोने वालो ..........

रविवार, 18 अक्तूबर 2009

लालच की पराकाष्ठा

यह आश्चर्यजनक है और चिंताजनक भी कि सुख-संपन्नता के सबसे बड़े पर्व को कुछ लोगों ने अपने लालच को पूरा करने के कारोबार में तब्दील कर दिया है। यह शर्मनाक है कि उत्तर प्रदेश के विभिन्न इलाकों में नकली एवं दूषित दूध, खोये, मिठाई आदि का कारोबार बेरोकटोक ढंग से होता हुआ नजर आ रहा है। यह कारोबार कितने बड़े पैमाने पर हो रहा है, इसका पता इससे चलता है कि विभिन्न शहरों में मारे गए छापों के दौरान 80 हजार लीटर नकली तेल एवं वनस्पति घी, तीन हजार किलो देसी घी, 15 सौ किलो नकली खोया और बड़ी मात्रा में नकली दूध की बरामदगी की गई। इस बरामदगी से तो ऐसा लगता है कि यदि और अधिक छापे मारे जाते तो और ज्यादा नकली खोया, घी, दूध आदि बरामद होता। ध्यान रहे कि मिलावटखोरों के खिलाफ देर से कार्रवाई शुरू की गई और इसका एक प्रमाण स्वयं मुख्यमंत्री मायावती की ओर से किया गया यह सवाल है कि खाद्य एवं औषधि नियंत्रण विभाग के अधिकारी अब तक क्या कर रहे थे?
मुख्यमंत्री की इसके लिए सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने मिलावटखोरों के खिलाफ सख्ती बरतने और यहां तक कि उनके खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत कार्रवाई करने के आदेश दिए। ऐसे आदेशों के बाद यह आवश्यक हो जाता है कि मिलावटखोरों के खिलाफ जारी अभियान और अधिक गति पकड़े। वैसे भी यह लगभग तय है कि दीवाली के बाद भी मिलावटखोर अपनी हरकतों से बाज आने वाले नहीं हैं। निस्संदेह उनका दुस्साहस इसलिए बढ़ गया है, क्योंकि खाद्य एवं औषधि नियंत्रण सरीखे विभाग अपना कार्य सही तरीके से नहीं कर रहे हैं। होना तो यह चाहिए कि इस विभाग एवं पुलिस को ऐसा माहौल बना देना चाहिए कि मिलावटखोर हानिकारक खाद्य पदार्र्थो का निर्माण एवं बिक्री करने में भय खाएं। पता नहीं ऐसा होगा या नहीं, लेकिन यह सवाल तो उठना ही चाहिए कि आखिर खाद्य पदार्र्थो में जहरीली वस्तुएं मिलाने में भी संकोच क्यों नहीं किया जा रहा? क्या इससे अधिक घृणित कार्य और कोई हो सकता है? यह तो धनलिप्सा की पराकाष्ठा है। बेहतर हो कि जो लोग भी ऐसा हीन कार्य कर रहे हैं उन्हें सार्वजनिक रूप से भी धिक्कारा जाए।
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अरे भाई, दिवाली हो, होली हो या ईद हो जब तक यह मिलावटखोर अपना माल नहीं बेचेगे तब तक इन लोगो का, खाद्य एवं औषधि नियंत्रण विभाग वालो का, पुलिस वालो का और इन के बाकी मौसेरे भाइयो का घर खर्च कैसे चलेगा ??  तो थोडा बहुत आप भी सहयोग करे और खूब ख़रीदे मिलावटी दूध, खोये, मिठाई आदि !!

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इन जैसे लोगो को जितनी भी सजा दी जाये कम है बस जरूरत है इन लोगो पर पूरी इमानदारी से करवाई करने की ! अब जब  मुख्यमंत्री खुद इन लोगो पर करवाई की बात कह रही है तो उम्मीद भी यही की जा रही है कि करवाई होगी और जल्द होगी !! 
हम तो बस यही कहेगे कि .....जागो सोने वालो ......

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

अंधेरे में रहेगा शहीदों का आंगन



दिवाली पर सारा देश जगमगाएगा, लेकिन राष्ट्रीय स्मारक जलियांवाला बाग अंधेरे में डूबा रहेगा। 90 साल पहले जिन परवानों ने देश के लिए शहादत दी, उनके नाम को आजतक सरकार रोशन नहीं कर पाई।
बची-खुची कसर शहीदों के परिजनों ने पूरी कर दी। अपने पूर्वजों के नाम पर उन्हें सरकार से मदद की तो भरपूर आस है, लेकिन देश की आजादी के लिए जहां दादा-नाना ने खून बहाया, उस पावन धरती पर श्रद्धा के दो दीप तक जलाने के लिए शहीदों के परिजनों ने कभी कोई प्रयास नहीं किया।
जी हां, दिवाली के मौके पर रोशनी से हर-घर आंगन जगमगाएगा, लेकिन शहीदी स्थल जलियांवाला बाग में शहादत देने वालों की याद में कोई भी शख्स वहां श्रद्धा के दो दीपक नहीं जलाता। सरकार भी अपने स्तर पर यहां दीपमाला के लिए कोई प्रयास नहीं करती। पर उस सरकार से भला हम यह आस भी कैसे करें जो आज तक जलियांवाला बाग के शहीदों के नाम को उजागर तक नहीं कर पाई। हैरानी की बात यह है कि जलियांवाला बाग कांड के 90 वर्ष बाद सरकार ने शहीदों की सूची लगाने का निर्णय लिया था।
काफी शोर-शराबे के बाद शिलापंट्ट तो बनकर तैयार है, लेकिन सूची अभी तक इससे नदारद है। शहीदों के परिजन तो सरकार से भी दो कदम आगे निकले। शहीद के परिजन पूर्वजों के शहादत को भुनाने के तिकड़म में अभी तक जुटे हैं। वह सरकार से ढेर सारी सुविधाएं पाने की जुगत में हैं। दिवाली पर उनके घर तो जगमगाते हैं, लेकिन पूर्वजों ने जिस पावन धरती पर देश के लिए शहादत दी वहां श्रद्धा के दो दीपक जलाना मुनासिब नहीं समझते। यही बस नहीं शहीदों को सरमाया बताने वाले और राष्ट्रीयता का दंभ भरने वालों की भी कमी नहीं है, लेकिन वह भी शहीदी स्थल में कभी दिए जलाने नहीं पहुंचे।
जलियांवाला बाग की जगमगाहट पर नजर डालें तो यहां शाम ढलने के बाद उजाले के नाम पर मद्धिम रोशनी ही जलती है। लिहाजा शाम ढलते ही शहीदी स्थल से प्रकाश गायब हो जाता है। सरकार ने लाइट एंड साउंड प्रोग्राम के माध्यम से शहीदी स्थल की छटा को निखारने का निर्णय लिया है, लेकिन इसमें अभी वक्त लगेगा। वैसे बता दें कि जलियांवाला बाग में बिजली की सप्लाई का खर्च निगम वहन कर रहा है। लाइट एंड साउंड प्रोग्राम के लिए यहां पर निर्बाध तौर पर बिजली सप्लाई के लिए बिजली बोर्ड ने अलग से ट्रांसफार्मर भी लगवाए हैं। केंद्र सरकार द्वारा शहीदी स्थल के लिए 5 करोड़ की लागत से किए जा रहे विकास कार्य के तहत शहीदी लाट, शहीदी कुआं, समाधि, दीवारें व पाथ पर नए लाइटे लगाई गई हैं, लेकिन क्या कृत्रिम प्रकाश शहीदों की आत्मा को रोशन कर पाएगा?
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आज सिर्फ़ यह कह कर काम नहीं चल सकता कि ............जागो सोने वालो  .......... इस लिए साथ साथ यह भी कहेता हूँ कि ..... ज़रा याद उन्हें भी कर लो .........

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

टीम इंडिया के उपकप्तान हैं धौनी !!


अगर आपको जानकारी नहीं हो तो हम बता देते हैं कि महेंद्र सिंह धौनी टीम इंडिया के उपकप्तान हैं। चकरा गए ना। मगर मानो या ना मानो, यह सच है। उन्हीं के राज्य झारखंड राज्य क्रिकेट एसोसिएशन [जेएससीए] का आधिकारिक अंतरजाल [वेबसाइट] तो यही बताता है।
संघ की आधिकारिक अंतरजाल के भंवरजाल में फंसे तो फिर यह किसी मायाजाल से कम नहीं प्रतीत होगा। पिछले पांच वर्षो से राज्य की सबसे धनी संस्था [परिसंपति लगभग 70 करोड़] की आधिकारिक वेबसाइट अपडेट तक नहीं हुई है। धौनी को कप्तान बने तीन वर्ष पूरे होने को हैं, पर वेबसाइट में आज भी उन्हें उपकप्तान बनने पर बधाई दी जा रही है। इसके अलावा दो बार आईसीसी प्लेयर ऑफ द ईयर का खिताब जीतने वाले माही का ना तो कहीं जिक्र है और ना ही उनकी कोई फोटो ही है।
अगर हैदराबाद क्रिकेट एसोसिएशन या फिर कर्नाटक क्रिकेट एसोसिएशन की वेबसाइट पर नजर डालें तो होम पेज में आपको उनके राज्य के अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटरों की न सिर्फ फोटो मिलेगी, बल्कि प्रोफाइल भी आसानी से उपलब्ध हो जाएगा। क्रिकेट की बाइबिल विस्डन के ड्रीम टीम के कप्तान का सम्मान पा चुके पद्मश्री धौनी का प्रोफाइल जेएससीए की वेबसाइट में उपलब्ध नहीं है। यही नहीं जेएससीए ने धौनी को दो साल पूर्व सम्मानित सदस्य का दर्जा दिया था, पर वेबसाइट में इसका जिक्र तक नहीं किया गया है।
वेबसाइट पर गलत सूचनाओं के मकड़जाल का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दो वर्ष पहले पूर्व अंतरराष्ट्रीय टेस्ट क्रिकेटर रमेश सक्सेना व पूर्व अंतरराष्ट्रीय वनडे क्रिकेटर रणधीर सिंह की सदस्यता संघ के विरुद्ध गतिविधियों में संलिप्तता का आरोप लगाकर छीन ली गई थी। पर वेबसाइट के अनुसार जहां रमेश सक्सेना अभी भी जेएससीए के सदस्य हैं, वहीं रणधीर सिंह की सदस्यता छीन ली गई है। पूर्व क्रिकेटर सबा करीम जिन्होंने कभी जेएससीए का नाम रोशन किया था, का नाम भी सदस्यता सूची से गायब है।
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अब साहब क्या कहे, बहुत ही छोटी सी बात है .... जाने भी दीजिये ...क्या करना ....अब वेबसाइट में नहीं है तो क्या हुआ सच तो सब जानते ही है !!
जिस भारत देश में आज भी ४०० रुपये की पेंशन के लिए किसी ७२ साल के आदमी को यह साबित करना होता है कि वो ही पेंशन का हक़दार है तो अगर लाखो में कमाने वाले धोनी एक बार यह साबित कर दें कि वो कैप्टेन है तो कौन सी बड़ी बात हो जायेगी ??
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बाकी झारखंड राज्य क्रिकेट एसोसिएशन [जेएससीए] वालो से यही कहना है कि .............जागो सोने वालो .........

रविवार, 11 अक्तूबर 2009

दुस्साहस का प्रमाण

मेरठ में एक युवा और उदीयमान क्रिकेटर की जिस तरह हत्या हुई वह उत्तर प्रदेश के क्रिकेट जगत के साथ-साथ आम जनता को भी झकझोर देने वाली है। प्रतिभाशाली गगनदीप महज इसलिए गोलियों का शिकार हो गया, क्योंकि वह एक ऐसी दुकान पर मौजूद था जहां अपराधी तत्वों को दुकानदार की देरी रास नहीं आई। इस घटना से स्थानीय पुलिस-प्रशासन के साथ-साथ राज्य सरकार को भी चेतना चाहिए, क्योंकि गगनदीप की हत्या जिन परिस्थितियों में हुई उससे पता चलता है कि अपराधी तत्वों का दुस्साहस किस हद तक बढ़ गया है? मेरठ की इस घटना से यह भी साफ है कि जिन अपराधी तत्वों ने गगनदीप और दुकानदार की गोली मारकर हत्या कर दी उनके मन में पुलिस और कानून एवं व्यवस्था का कहीं कोई भय नहीं था। यह स्थिति क्यों बनी, इस पर राज्य सरकार को भी चिंतित होना चाहिए और स्थानीय पुलिस-प्रशासन को भी। यदि अपराधी तत्वों का दुस्साहस हद से अधिक बढ़ता जा रहा है तो इसके लिए राज्य सरकार ही उत्तरदायी है। यह आवश्यक है कि राज्य सरकार उन सवालों पर ध्यान दे जो कानून एवं व्यवस्था की स्थिति को लेकर उठ रहे हैं।
इस पर संतोष नहीं जताया जा सकता कि मेरठ में दो लोगों की हत्या कर देने वाले एक अभियुक्त को गिरफ्तार कर लिया गया है और पुलिस की ओर से यह दावा भी किया जा रहा है कि उसने अपना अपराध कबूल कर लिया है, क्योंकि यह सुनिश्चित करना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है कि इस घटना को अंजाम देने वाले अपराधी तत्वों को कठोरतम दंड मिले। केवल इसलिए नहीं कि ऐसे तत्वों ने एक प्रतिभाशाली खिलाड़ी को मौत की नींद सुला दिया, बल्कि इसलिए भी, क्योंकि वे सभ्य समाज के लिए खतरा हैं। फिलहाल यह कहना कठिन है कि मेरठ की इस घटना से पुलिस कहीं कोई सबक लेगी, लेकिन कम से कम उत्तर प्रदेश क्रिकेट संघ को तो यह सबक लेना ही चाहिए कि इस प्रकार के दौरों में कैसी सतर्कता बरती जानी चाहिए। उत्तर प्रदेश की अंडर-22 क्रिकेट टीम के इस दौरे में यदि अपेक्षित सतर्कता बरती गई होती तो गगनदीप जैसे खिलाड़ी को मौत का शिकार होने से बचाया जा सकता था।
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क्या कहे .....सिर्फ़ इतना कि दोबारा एसा ना हो इसलिए ......जागो सोने वालो .......

शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

'आई-जेनरेशन' = 'इंस्टालमेंट जेनरेशन'

छोटी के बदले बड़ी चादर का एक्सचेंज ऑफर हो और शेष धनराशि आसान किश्तों में चुकाने की सुविधा, तो 'अपनी चादर देख कर पाँव पसारने' की कहावत भला किसको याद रहेगी? कम से कम दोहरी कमाई वाले भारतीय शहरी दंपतियों की युवा पीढ़ी को तो बिल्कुल नहीं, जिन पर टिकी हैं बैंकों और बाजार की निगाहें!



जी हाँ, आधुनिक जीवनशैली को अपनाने की इच्छा भारतीय शहरों में एक नई पीढ़ी को गढ़ चुकी है और इसको नाम दिया गया है 'आई-जेनरेशन'आप इसके दो अर्थ निकालने को स्वतंत्र हैं, पहला आई है 'इंडिपेंडेट' और दूसरा आई है 'इंस्टालमेंट'। यह 'इंस्टालमेंट जेनरेशन' का ही जलवा है कि बैंकों में ऋण देने के लिए मारामारी रहती है।

एक तरफ तो आई-जेनरेशन अपनी खुशियों को खरीदने के लिए ऋषि चार्वाक की परिपाटी पर 'जब तक जिओ, सुख से जिओ-कर्जा लेकर घी पियो' का सिद्धांत अपना चुकी है, वहीं पुरानी पीढ़ी को लगता है कि ऋण की यह प्रवृत्ति उनके बच्चों के भविष्य के लिए घातक हो सकती है। इसका जीवंत उदाहरण है देहरादून निवासी सेवानिवृत्त शिक्षिका पार्वती प्रसाद और उनके बेटे-बहू के बीच इन दिनों चल रहा शीतयुद्ध। पार्वती कहती हैं, ''उनके पास तीन साल पुरानी छोटी कार है और अब वे इसको औने-पौने बेच कर इस धनतेरस पर किश्तों में नई लग्जरी कार खरीदने जा रहे हैं। यह और कुछ नहीं, अमीरी का शौक लगा है।'' वहीं उनके कामकाजी बेटे-बहू का तर्क है कि बुढ़ापे तक पाई-पाई जोड़ कर सेवानिवृत्ति के बाद हरिद्वार घूमने से अच्छा है कि जिंदगी को आज जी लिया जाए!


पीढि़यों के बीच यह टकराव सामान्य सी बात है, लेकिन यह भी सच है कि किश्तों पर खुशियाँ खरीदने का तरीका कभी-कभी इतना महँगा पड़ जाता है कि मानसिक और पारिवारिक शांति जैसी कीमत चुकानी पड़ जाती है। चंडीगढ़ स्थित फाइनेंशियल एनालिस्ट सुमन गोखले कहती हैं, ''ग्लोबल मंदी के दौर में भी अगर देश में कोई बड़ी समस्या नहीं आई, तो इसकी वजह थी भारतीयों को विरासत में मिला बचत करने और कर्ज से दूर रहने का संस्कार। इसके विपरीत किश्तों पर जीने वाला अमेरिकी समाज आज मुसीबतों में घिरा हुआ है। यकीनन इतने बड़े उदाहरण से तो ऐसा ही लगता है कि पैर फैलाने के लिए चादर उधार माँगने से पहले पूरा गुणा-भाग कर लेना जरूरी है, वरना शान तो क्या बढे़गी, शांति भी नहीं बचेगी!''
 

[दिखावा बढ़ा समाज में]

आज जमीन-जायदाद और जेवर ही नहीं, जीन्स और टूर पैकेज तक कर्ज और आसान किश्तों पर उपलब्ध हैं। इनके संभावित ग्राहक हैं युवा और मध्य आयु वर्ग के ऐसे एग्जीक्यूटिव, जिनके पास ऋण लेने और किश्तों को चुकाने की क्षमता है। कुछ दिन पहले  एक केस आया था, एक व्यक्ति ने पत्नी की जिद की वजह से कर्ज लेकर हैसियत से बड़ी गाड़ी खरीद ली। बाद में किश्तें अदा करने में पसीने छूटने लगे तो उन्होंने गाड़ी बेचने का फैसला लिया।  देखा जाये तो यह दिखावा ही नहीं, एक बीमार मानसिकता है। इसकी वजह से घरों में तनाव होता है और बच्चे भी प्रभावित होते हैं।


[बढ़ा है लाइफस्टाइल प्रेशर]

इस तेज रफ्तार जिंदगी में इंसान सब कुछ पा लेना चाहता है, जबकि उसे यह मालूम नहीं होता कि उसे किस चीज की जरूरत है और किसकी नहीं। लोग अपनी जिंदगी से कम और दूसरों की समृद्धि से ज्यादा दुखी होने लगे हैं। यही लाइफस्टाइल प्रेशर होता है |
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लोग लाइफस्टाइल को लेकर जरूरत से ज्यादा कॉन्शस हो गए हैं। रोज़ कई लोग मिलते रहते हैं, जो लाइफस्टाइल को लेकर डिप्रेशन के शिकार होते हैं। हालांकि वे मानने को तैयार नहीं होते, लेकिन जब उनसे बात करी जाये, तब चीजें खुलकर सामने आती हैं। वे यह नहीं जानते कि किश्तों में खुशियां नहीं खरीदी जा सकतीं, खुशियां तो हमारे मन के भीतर से आती हैं।
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हम तो अब भी यही कहेगे कि 'अपनी चादर देख कर पाँव पसारने' की कहावत आज भी एकदम सटीक है आगे जो 'आई-जेनरेशन' की मर्ज़ी| 

वैसे भी अब तो सब जान ही गए है, अपनी आदत है सो कहेते है .........जागो सोने वालो .........