छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में एक सप्ताह पहले हुए नक्सली हमले में मारे गए 76 जवान सरकार के रिकार्ड में शहीद नहीं कहलाएंगे। इसकी वजह यह है कि उनमें से 75 जवान सीआरपीएफ के थे और एक जिला पुलिस का था। नियम के मुताबिक दुश्मनों से लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त सेना के जवान को ही शहीद का दर्जा मिल सकता है।
अंतर इतना ही नहीं है। नक्सली हमले में मरने वाले सीआरपीएफ जवानों के परिवार वालों को मिलने वाली एकमुश्त सरकारी रकम भी बराबर नहीं होती है। रकम इस बात पर निर्भर करती है कि जवान किस राज्य में मारा गया है।
शायद ऐसे भेदभाव की वजह से ही नक्सल प्रभावित इलाकों में तैनात होने वाले जवान काफी संख्या में नौकरी छोड़ने के लिए मजबूर हो रहे हैं। एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि आतंकवादियों और नक्सलियों के हाथों मारे गए सीआरपीएफ के जवानों को शहीद का दर्जा दिए जाने की मांग लंबे समय से की जा रही है, लेकिन सरकार इसके लिए तैयार नहीं है। हालत यह है कि जम्मू-कश्मीर में आतंकियों के साथ किसी मुठभेड़ में मारे गए सेना के जवान को तो शहीद का दर्जा दिया जाता है, लेकिन उसी मुठभेड़ में मारे जाने वाले सीआरपीएफ के जवान शहीद होने के सम्मान से वंचित रह जाते हैं।
सीआरपीएफ के जवानों की हालत यह है कि नक्सलियों के हाथों मारे जाने के बाद उनके परिवार को कितनी एकमुश्त सरकारी रकम मिलेगी, यह इस पर निर्भर करता है कि उनकी मौत किस राज्य में हुई है। अगर छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल और झारखंड में मौत हुई है तो मारे गए सीआरपीएफ जवान के परिवार को सबसे अधिक, लगभग 13 लाख रुपये की सहायता इन राज्य सरकारों से मिलती है। इन राज्यों में नक्सल विरोधी अभियान में शामिल सीआरपीएफ जवानों का 10 लाख रुपये का ग्रुप बीमा कराया गया है और तीन लाख रुपये सरकारी कोष से दिए जाते हैं। बिहार में नक्सली हमले में मारे गए सीआरपीएफ जवान के परिवार को राज्य सरकार केवल ढाई लाख रुपये की सहायता देती है। उत्तर प्रदेश में तो यह रकम महज 90 हजार रुपये है। मध्य प्रदेश में 10 लाख, आंध्र प्रदेश में साढ़े सात लाख और उड़ीसा में 11 लाख रुपये की एकमुश्त सहायता देने का प्रावधान है। यह सहायता केंद्र सरकार द्वारा दी जाने वाली सहायता से अलग है।
नक्सल प्रभावित इलाकों में तैनात सीआरपीएफ जवानों को प्रोत्साहन भत्ता भी दूसरों की तुलना में काफी कम मिलता है। इतने भेदभाव के चलते ही शायद बीते तीन साल में सीआरपीएफ की नौकरी छोड़ने वाले जवानों की संख्या लगभग तीन गुना बढ़ गई है। 2007 में 1381 जवानों ने नौकरी छोड़ी थी। 2008 में यह संख्या 1791 और 2009 में 3855 हो गई। पिछले तीन साल में जिन 7,027 जवानों ने नौकरी छोड़ी, उनमें 6,270 कांस्टेबल से लेकर इंस्पेक्टर के बीच के हैं।
बीते चार साल में सीआरपीएफ के 90 फील्ड कमांडरों ने भी इस बल को अलविदा कह दिया है। उन्होंने या तो इस्तीफा दे दिया या फिर स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि कमांडेंट स्तर तक के 59 अधिकारियों ने बीते चार साल में सीआरपीएफ से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली है, जबकि 32 ने इस्तीफा दिया है।
चिंता की बात यह है कि ज्यादातर जवानों और अधिकारियों ने नौकरी छोड़ने का फैसला नक्सली इलाकों में तैनाती के दौरान या फिर उसके तत्काल बाद लिया।
( दैनिक जागरण की रिपोर्ट के आधार पर )
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अगर सरकार की यही निति चलती रही तो कोई आश्चर्य नहीं होगा कि भविष्य में इन सुरक्षा बालो का अस्तित्व ही खत्म हो जाये ! कोई भी सेना जवानों या अधिकारियों के बिना नहीं लड़ सकती और यह भी एक परम सत्य है कि जवान भी उस सेना या राजा के लिए नहीं लड़ते जो उनके हितो का ख्याल ना रखे !
समय रहते सरकार कों अपनी नींद से जागना होगा और इन जवानों की शहादत कों उचित सम्मान देना होगा क्यों कि इन्ही जवानों ने अपनी रातो की नींदे खोई है हम सब की चैन की नींद के लिए !
आज केवल मैं नहीं सारा देश कह रहा है ............................जागो सोने वालों ..................सम्मान करो शहीदों का !!