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बुधवार, 3 फ़रवरी 2021

डिजिटल मार्केटिंग के दौर में होता किसान आंदोलन

ये डिजिटल मार्केटिंग का दौर है, साहब। आप इसे जितनी जल्द समझ जाएं उतना अच्छा।

सोशल मीडिया के इस दौर में आप के मोबाइल तक किसी भी उत्पाद या एजेंडे को पहुँचाने का एक प्रभावी साधन है ये डिजिटल मार्केटिंग। कंपनियां और संस्थाएं इसका भरपूर उपयोग कर रही है पिछले कुछ वर्षों से। और सब से कमाल बात यह है कि हम और आप ही इस में इन लोगों की सहायता कर रहे हैं। कैसे यह आगे बताता हूँ ।

कुछ नामचीन हस्तियों द्वारा किसी भी उत्पाद या मुद्दे पर एक साथ, एक जैसे पोस्ट करते देखें तो समझ जाइये कि विज्ञापन का यही खेल चालू है। फेसबुक और इंस्टाग्राम पर हम खुद नामचीन हस्तियों की देखा देखी चेक इन विकल्प के माध्यम से बताते हैं कि हम किस जगह मौजूद हैं या फ़िलहाल किस उत्पाद का उपयोग कर रहे हैं। जबकि इस के एवज में हमें कोई आर्थिक लाभ नहीं होता पर हम फ़िर भी ये करते हैं क्यूँ की यही मौजूदा ट्रेंड बन गया है ।

आप खुद सोचिए अगर कोई आपको किसी विशेष उत्पाद या मुद्दे के समर्थन में एक दो ट्वीट या फेसबुक या इंस्टाग्राम पोस्ट लगाने के बदले एक अच्छी खासी रकम की पेशकश करे तो क्या आप उसे छोड़ देंगे। ऐसे मामले में विचारधारा की न सोच अक्सर इस से होने वाले आर्थिक लाभ को अधिक महत्व दिया जाता है। कुछ वर्षों पूर्व आए स्टिंग ऑपरेशन में इसी प्रकार के खुलासे भी हुए थे कि चुनावों को प्रभावित करने के उद्देश्य से किसी प्रकार राजनीतिक दलों द्वारा देश की नामचीन हस्तियों को धनलाभ देते हुए सोशल मीडिया पर ऐसे ही प्रचार करवाया गया था।


किसान आंदोलन के समर्थन में चंद विदेशी हस्तियों के ट्वीट कल से सुर्खियों में आये हैं, पर सभी ट्वीटों की शैली कमोबेश एक सी ही है। आश्चर्य नहीं होगा यदि ये सब भी एक सोची समझी डिजिटल मार्केटिंग नीति के तहत किया गया हो। क्यों कि जिन हस्तियों के ट्वीट आए हैं उनको भारत के बारे में कितनी जानकारी है यह संदेह के घेरे में है, उस पर भारतीय किसानों की समस्यों की जानकारी होना तो बिलकुल ही असंभव सी बात लगती है । फिर यह सवाल भी खड़ा होता है कि सरकार और किसानों के बीच किस कारण गतिरोध बना हुआ है उन कृषि बिलों के विषय में इन लोगों को कितनी जानकारी है और यह जानकारी इनको कहाँ से मिली है !? 

इन सब कारणों से ही इन विदेशी हस्तियों द्वारा भारत के आंतरिक मामलों में अपनी राय देना कोई जनहित में की गई मुहिम से ज्यादा एक सोची समझी राजनीतिक साजिश लग रही है। जिस में सोशल मीडिया के डिजिटल मार्केटिंग वाले हथियार कर जम कर उपयोग किया जा रहा है ।

मौजूदा किसान आंदोलन के समर्थन में जिन विदेशी हस्तियों के ट्वीट आये हैं उन से वास्तविक किसानों को कोई बल मिला हो या न मिला हो पर इस आंदोलन की आड़ में समान्तर रूप से चल रहे भारत विरोधी एजेंडे को अवश्य बल मिला है।

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वास्तविक किसानों के वास्तविक हितों का हर भारतीय को पक्ष लेना चाहिए। साथ साथ ये भी देखना चाहिए कि किसानों के कंधों पर बंदूक रख कोई अपना उल्लू न सीधा कर ले। जैसा कि होता दिख रहा है। 

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जागो सोने वालों ...

गुरुवार, 3 दिसंबर 2020

भोपाल गैस कांड की ३६ वीं बरसी



भारत के मध्य प्रदेश राज्य के भोपाल शहर मे 3 दिसम्बर सन् 1984 को एक भयानक औद्योगिक दुर्घटना हुई। इसे भोपाल गैस कांड, या भोपाल गैस त्रासदी के नाम से जाना जाता है। भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड नामक कंपनी के कारखाने से एक ज़हरीली गैस का रिसाव हुआ जिससे लगभग 15000 से अधिक लोगो की जान गई तथा बहुत सारे लोग अनेक तरह की शारीरिक अपंगता से लेकर अंधेपन के भी शिकार हुए। 

 

भोपाल गैस काण्ड में मिथाइलआइसोसाइनाइट (मिक) नामक जहरीली गैस का रिसाव हुआ था। जिसका उपयोग कीटनाशक बनाने के लिए किया जाता था। मरने वालों के अनुमान पर विभिन्न स्त्रोतों की अपनी-अपनी राय होने से इसमें भिन्नता मिलती है। फिर भी पहले अधिकारिक तौर पर मरने वालों की संख्या 2,259 थी। 
 

मध्यप्रदेश की तत्कालीन सरकार ने 3,787 की गैस से मरने वालों के रुप में पुष्टि की थी। अन्य अनुमान बताते हैं कि ८००० लोगों की मौत तो दो सप्ताहों के अंदर हो गई थी और लगभग अन्य 8000 लोग तो रिसी हुई गैस से फैली संबंधित बीमारियों से मारे गये थे। 
 
२००६ में सरकार द्वारा दाखिल एक शपथ पत्र में माना गया था कि रिसाव से करीब 558,125सीधे तौर पर प्रभावित हुए और आंशिक तौर पर प्रभावित होने की संख्या लगभग 38,478 थी। ३९०० तो बुरी तरह प्रभावित हुए एवं पूरी तरह अपंगता के शिकार हो गये।

भोपाल गैस त्रासदी को लगातार मानवीय समुदाय और उसके पर्यावास को सबसे ज़्यादा प्रभावित करने वाली औद्योगिक दुर्घटनाओं में गिना जाता रहा। इसीलिए 1993 में भोपाल की इस त्रासदी पर बनाए गये भोपाल-अंतर्राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग को इस त्रासदी के पर्यावरण और मानव समुदाय पर होने वाले दीर्घकालिक प्रभावों को जानने का काम सौंपा गया था।
 

आज इस त्रासदी की 36 वीं बरसी है। इतिहास साक्षी है कि किस प्रकार तब की कांग्रेस सरकार ने इस त्रासदी के सब से बड़े दोषी वॉरेन एंडरसन को सभी कानूनों को ताक पर रख बच निकल जाने का पूरा मौका दिया और पीड़ितों को न्याय से वंचित रखा।
 

 इतने वर्षो के बाद भी आज तक इस त्रासदी के पीड़ितों के साथ न्याय नहीं हुआ है ... सरकारें आती जाती रहती हैं और ये सभी न्याय के तरसते रह जाते हैं | इस त्रासदी में मारे गए लोगों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि सरकार जल्द से जल्द बचे हुए पीड़ितों और उन के परिवार की सुध ले और उनकी शिकायतों का निस्तारण करें |

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जागो सोने वालों ...