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शनिवार, 26 सितंबर 2009

उनके लिए तो इसी धरती पर अगर नरक कहीं है , तो यहीं है, यहीं है, यहीं है !!

अगर नरक कहीं है , तो यहीं है, यहीं है, यहीं है !!

हिमाचल प्रदेश के दुर्गम क्षेत्रों में आज भी महिलाओं के लिए वो ३ दिन नर्क के बराबर हो जाते है जब वह मासिक धर्म से गुजर रही होती हैं। इस दौरान महिला को तीन रात गऊशाला या फिर भाड़ [औजार रखने का खुला टूटा-फूटा पुराना कमरा] में शरण लेनी पड़ती है। मौसम सर्द हो या गर्म ३ कठिन रातें अकेले में उसे औरत होने का एहसास करवाती हैं।
प्रदेश के जिला मंडी की चौहारघाटी, स्नोर बदार, कमरूघाटी, जंजैहली, करसोग, चच्योट, कांगड़ा के छोटा व बड़ा भंगाल में आज भी इस तरह का दंड महिलाओं को ३ दिनों तक भुगतना होता हे। इसके साथ-साथ शिमला के डोडारा क्वार, सिरमौर, किन्नौर, लाहुल-स्पीति के कई क्षेत्रों समेत कुल्लू की लग घाटी में भी ऐसा ही हो रहा है।
मान्यता है कि इस अवस्था में महिला किसी देव स्थल, घर के चूल्हे-चौके से छू गई तो घर से देवताओं का वास उठ जाएगा कई प्रकार के क्लेश उत्पन्न होंगे। इस दौरान महिलाओं को 3 दिन तक अलग से बर्तन में दूर से खाना परोसा जाता है, बिस्तर के नाम पर एक अदद फटा-पुराना कंबल, तलाई या फिर बिछाने के लिए धान की घास दी जाती है। तीसरे दिन उक्त महिला को घर से बाहर एकांत में नहलाकर पंचगव्य [पंचामृत] पिलाकर घर में प्रवेश दिया जाता है। कहीं-कहीं इसके बाद भी पांच या फिर सात दिन तक देव स्थलों पर जाने की मनाही रहती है।
विश्व के प्राचीनतम लोकतंत्र के रूप में विख्यात कुल्लू के मलाणा में औरतों के लिए परिस्थितियां राज्य के बाकी हिस्सों से विकट हैं। शेष हिमाचल के कुछ हिस्सों में तो औरतों को मासिक धर्म के दौरान पशुशालाओं में रखा जाता है। परंतु मलाणा में तो औरतों को गांव से बाहर रखा जाता है। इतना ही नहीं किसी औरत की प्रसूति होने पर तो उसे तेरह दिनों तक गांव से बाहर रखा जाता है।

अवैज्ञानिक है यह मान्यता

स्त्री रोग विशेषज्ञ डाक्टर हितेंद्र महाजन ने बताया कि औरत जननी है तथा मासिक धर्म एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। जिस दौरान 'वेस्ट ब्लड' बाहर निकलता है जिससे कोई संक्रमण नहीं फैलता है। औरतों को माहवारी के दौरान घर से बाहर रखना अन्याय है। यह मान्यता पूरी तरह अवैज्ञानिक है।

क्या कहेता है राज्य महिला आयोग ?

इस बारे में राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष अंबिका सूद ने कहा कि अभी तक उनके पास ऐसी कोई शिकायत नहीं आई है। उन्होंने कहा कि आयोग अपनी मर्जी से किसी भी प्रकार के रीति-रिवाजों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।
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सच बताये, इन महिला आयोगों में कौन सी महिलायों को जगह दी जाती है ?? वो जो सच में महिलायों का हित देखती है या चंद वो महिलाये जो सिर्फ मीडिया के सामने ही सज धज के महिलायों के पक्ष में नारे लगा अपनी अपनी imported गाडियों में बैठ चली जाती है ? कब इन्साफ मिलेगा इन महिलायों को जो अपने औरत होने की सजा सी पा रही है ?  
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 अंबिका जी , सिर्फ़ AC कमरों में बैठ लम्बी लम्बी डींगे हांकने से कुछ नहीं होने का, अगर सच में इन महिलायों का हित चाहती है तो 'Grass Root Level ' पर जा कर काम करें | जिन रीति-रिवाजों से इंसानियत पर दाग लगते हो उनके खिलाफ जाने में कोई जुर्म नहीं होता ....जा कर समझाए लोगो को  कि औरत जननी है तथा मासिक धर्म एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। आगे आपकी मर्ज़ी ..............अपनी तो आदत है सो कहेते है ...........जागो सोने वालो ........





गुरुवार, 24 सितंबर 2009

मास्को में मनाया गया हिंदी दिवस



हिंदी दिवस के अवसर पर भारतीय दूतावास के जवाहर लाल नेहरू सांस्कृतिक केंद्र द्वारा आयोजित समारोह में रूस के एक स्थानीय स्कूल और तीन विश्वविद्यालयों के सैकड़ों हिंदी छात्र-छात्राओं और हिंदी शिक्षकों ने हिस्सा लिया।
हिंदी दूत प्रभात शुक्ला ने अपने संबोधन में कहा, 'मुझे आपको प्रोत्साहित करने के लिए बुलाया गया है लेकिन इसके विपरीत आप हमें प्रोत्साहित कर रहे हैं। सोवियत दौर में हिंदी पढ़ने का सरकारी आदेश था लेकिन आज मैं आपके चेहरे को देख कर लगता है कि आप अपनी इच्छा से हिंदी और भारतीय संस्कृति पढ़ रहे हैं।'
जूनियर स्कूल की एक छात्रा मारिया कोजलोवा ने मंगलवार रात 'सबसे न्यारी सबसे प्यारी हमारी हिंदी' के कविता पाठ से दर्शकों को मुग्ध कर दिया। रूस में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को सिखने का मुख्य केंद्र मास्को स्टेट युनिवर्सिटी और अंतरराष्ट्रीय संबंध संस्थान के छात्रों ने कविता पाठ किया और हिंदी गीत गाए।
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एक यह लोग है जो हिंदी सीखने को आतुर है एक हमारे यहाँ का युवा है जो हिंदी भूलने को आतुर है !! खुदा जाने कब समझेगे यह लोग कि अपनी भाषा जानने से कोई 'BACKWARD' नहीं हो जाता !?
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खैर जनाब , हम तो खुद 'BACKWARD' है हम इन 'FORWARD ' लोगो को  क्या सिखायेंगे ?? 
हम तो बस अपनी आदत के मुताबिक कहेते रहेगे .................जागो सोने वालो .................

बुधवार, 23 सितंबर 2009

ग्रामीण क्षेत्र के तमाम मासूम जी रहे खतरे में

बच्चों की जानलेवा बीमारियों से बचाने के लिए टीकाकरण बहुत जरुरी है। शहर कस्बों की अपेक्षा दूर दराज ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी टीकाकरण अभियान गति नहीं पकड़ पा रहा। यदि देखा जाये तो ग्रामीण अंचलों में आज भी कई मासूम जिंदगियां खतरे में जी रही है।
मैनपुरी के बेवर ब्लाक क्षेत्र के अन्तर्गत आज भी ऐसे कई गांव हैं जहां बच्चों का नियमित रूप से टीकाकरण नहीं हो पाता है। जन्म के साथ ही बच्चे को काली खासी, टिटनेस, खसरा, पोलियो बीसीजी, जैसी बीमारियों से बचाने के लिए टीकाकरण बहुत जरुरी है। हालांकि शहर कस्बों में टीकाकरण में उतनी लापरवाही नहीं बरती जाती है। जितनी ग्रामीण क्षेत्रों में इसके अलावा ईट भट्टों व फैक्ट्रियों में काम करने वाले अन्य राज्यों के मजदूर परिवारों में बच्चों के टीकाकरण की तरफ कोई ज्यादा पहल नहीं की जाती है। सरकारी स्तर पर टीकाकरण कराने का प्रावधान है। मगर ये आंकड़ों की भेंट चढ़ने लगे हैं। यह बात सभी मानते हैं कि पोलियों उन्मूलन अभियान के साथ ही अन्य टीकाकरण अपेक्षित गति नहीं पकड़ पाया कहीं पर संसाधनों की कमी तो कही पर लापरवाही से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। ब्लाक क्षेत्र के दूरदराज बसे ग्रामों में सरकारी स्वास्थ्य की कोई व्यवस्था न होने के कारण वहां बच्चों का नियमित टीकाकरण नहीं हो पाता है। यदि देखा जाये तो अन्य टीकाकरण की अपेक्षा लाखों के वजट वाले पोलियों उन्मूलन अभियान में दिलचस्पी ज्यादा है। दूसरे टीकाकरण की सिर्फ लकीर ही पीटी जाती है। आकड़े कुछ भी बोले मगर हकीकत किसी से छिपी नहीं।
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समझ नहीं आता कैसे कोई इन मासूमो को बीमारियों के खतरे में छोड़ चैन की बंसी बजा सकता है ? क्या केवल कागजो पर खाना पूर्ति ही होती रहेगी या कभी सच में इन बच्चो के लिए कुछ किया जायेगा ?? 
कहाँ है आधिकारी ......कहाँ गए वो नेता ....जो हर १५ अगस्त और २६ जनवरी को इन्ही बच्चो को देश का भविष्य बताते है ??
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खैर साहब, हमे क्या ?? चाहे आप बच्चो का टीकाकरण करवाओ या कागजो का  ............जो मर्जी सो करो !! अपनी तो आदत है सो कहेते है ............जागो सोने वालो .........

सोमवार, 21 सितंबर 2009

'मितव्ययता' के नाटक - बेमुरव्वत सांसद, लाचार सरकार


सादगी बरतने और सरकारी खर्च में कटौती करने के संप्रग सरकार के प्रयास आजकल पूरे देश में चर्चा में है। सरकार अपने मंत्रियों और सांसदों को मितव्ययता बरतने की दुहाई दे रही है, लेकिन पिछले पांच वर्षो का उसका बही-खाता कुछ और ही कहानी बयां करता है। इस दौरान मंत्रियों और सांसदों के आवास चमकाने में एक अरब रुपये खर्च हुए। लेकिन मंत्रीजी का दिल मांगे मोर। तभी तो पुराने मंत्री सरकारी आवास खाली नहीं कर रहे तो दूसरी तरफ नए मंत्रियों को अपने सरकारी आवास पसंद नहीं आ रहे।
 
फिजूलखर्ची है कि रुकती नहीं

मुंबई के चेतन कोठारी ने सूचना के अधिकार [आरटीआई] के तहत याचिका दायर की थी। जो जवाब मिला वह चौंकाने वाला है। सरकार पिछले पांच वर्षो में लुटियंस जोन में सांसदों व मंत्रियों के बंगलों के रख-रखाव पर 93 करोड़ 53 लाख रुपये खर्च कर चुकी है।
नगरीय विकास मंत्रालय के अंतर्गत काम करने वाले संपदा विभाग के उपनिदेशक जेपी रथ ने बताया कि सांसदों के बंगलों के रख-रखाव का जिम्मा केंद्रीय लोकनिर्माण विभाग का होता है। इसके लिए पिछले पांच वर्षो में 93.5 करोड़ रुपये खर्च किए गए।
सांसदों को मुफ्त सरकारी आवास की सुविधा मिलती है। लाइसेंस फीस के रूप में उन्हें सिर्फ 105 रुपये देने पड़ते हैं। कोठारी के मुताबिक आप सांसदों के बंगलों में जाएं तो आपको वहां मरम्मत और साफ-सफाई का काम चालू मिलेगा। बंगलों को चमकाने के लिए वुड फ्लोरिंग [लकड़ी का फर्श] दीवारों की साज-सज्जा, जिप्सम बोर्ड व फाल्स सीलिंग, खिड़की-दरवाजों पर रंगरोगन जैसी तमाम चीजें कराई गई हैं। इन सब पर खासा पैसा खर्च हुआ है। सरकार ने 2004-05 में इन बंगलों के रख-रखाव पर 11 करोड़ रुपये खर्च किए। इसके अगले साल 9 करोड़, 2006-07 में 20 करोड़ व 2007-08 में 33 करोड़ रुपये खर्च किए गए।
नई दिल्ली में विभिन्न मंत्रियों को 77 बंगले अलाट किए गए हैं। इनमें वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी का तालकटोरा रोड स्थित बंगला, कृषि व उपभोक्ता मामलों के मंत्री शरद पवार का जनपथ, रक्षा मंत्री ए के एंटनी का केएम मार्ग, गृहमंत्री पी.चिदंबरम का सफदरजंग रोड व रेल मंत्री ममता बनर्जी का बाबा खड़ग सिंह मार्ग का बंगला प्रमुख हैं।
 
घर नहीं बंगला चाहिए

इस बीच 100 नए लोकसभा सांसदों ने सरकार से अलाट घरों को बदलने की मांग की है। जबकि 36 अन्य पूर्व सांसदों द्वारा घर खाली होने का इंतजार कर रहे हैं। लोकसभा हाउसिंग कमेटी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि मानदंडों के मुताबिक प्रत्येक सांसद को आवास आवंटित किए जा चुके हैं। लेकिन कई ने आवंटित घरों को लेने से मना कर दिया है। उनका कहना है कि बड़ा घर चाहिए। 100 सांसदों ने नार्थ व साउथ एवेन्यू में घर आवंटित करने की मांग की है जो संभव नहीं है। ऐसा करना नियमों का उल्लंघन होगा।
अधिकारी के मुताबिक 'पूर्व मंत्री व पहली बार लोकसभा सांसद [पटना साहिब] शत्रुघ्न सिन्हा को टाइप 7 बंगला आवंटित किया गया था। लेकिन उन्हें टाइप 8 बंगला चाहिए। इसी तरह भाजपा के नवजोत सिंह सिद्धू और अनुराग ठाकुर को उनकी पात्रता के हिसाब से घर दिया गया था। लेकिन उन्होंने बड़े आवास की इच्छा जताई। 18 सितंबर को भाजपा के राज्यसभा सांसद नंद कुमार साय को साउथ एवेन्यू स्थित सरकारी आवास से इसलिए बाहर कर दिया गया क्योंकि लोकसभा सदस्य नहीं होने के कारण वह उस बंगले में रहने के अधिकारी नहीं थे।
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 सांसद जी, जिस देश में आज भी लाखो लोग सर के ऊपर एक अदना सी छत को तरसते हो, जिस देश में हर साल लाखो लोगो के बसे बसाये घर बाड़ में तबाह होते हो, जिस देश की जनता बेघर हो ........ क्या उस देश के सांसदों को अपने एशोआराम के लिए सरकारी खजाने का इस कदर दोरुपयोग करना चाहिए ?? 
खैर, जाने दीजिये .... आप नहीं दे पायेगे इस का जवाब !!! केवल 'मितव्ययता' के नाटक से कुछ नहीं होगा ... इस तरह हमारे पैसे लुटा चैन की नीद लेना बंद कर दो .....नहीं तो मेरे साथ साथ पूरा भारत यही कहेगा आपसे ........ जागो सोने वालों  .......
 

आतंकियों के आका - परवेज मुशर्रफ

परवेज मुशर्रफ पाकिस्तान के राष्ट्रपति और सेनाध्यक्ष ही नहीं रहे हैं, बल्कि वह आतंकियों के आका भी रहे हैं। यहां तक कि एक भारतीय सेना के अधिकारी का गला रेतने वाले आतंकी को उन्होंने एक लाख रुपये के इनाम से नवाजा था। यह साल 2000 की बात है। लेकिन अगले ही साल अमेरिका में हुए आतंकी हमले के बाद उन्हें अमेरिकी दबाव के चलते अपने इस पसंदीदा आतंकी के संगठन पर पाबंदी लगानी पड़ी थी। मुशर्रफ का यह 'आतंकी' चेहरा पाकिस्तान के ही मीडिया ने उजागर किया है।

 
'द न्यूज' अखबार ने रविवार को बताया है कि मुशर्रफ आतंकी कमांडर इलियास कश्मीरी के काम से इतने खुश हुए कि उन्हें इनाम में एक लाख रुपये बख्श दिए। इलियास 1990 के दशक में जम्मू-कश्मीर में बेहद सक्रिय था। रिपोर्ट के मुताबिक 26 फरवरी, 2000 को कश्मीरी अपने 25 साथियों के साथ नियंत्रण रेखा पार कर भारतीय सीमा में घुसा। वह एक दिन पहले भारतीय सेना की कार्रवाई में 14 आतंकियों की मौत का बदला लेने के लिए गया था। उसने नाकयाल सेक्टर में भारतीय सेना पर घात लगा कर हमला बोल दिया। आतंकियों ने भारतीय सेना के एक बंकर को घेर लिया और ग्रेनेड से हमला किया। इस हमले में घायल एक सैन्य अधिकारी को कश्मीरी ने अगवा कर लिया और बाद में उसने अधिकारी का सिर कलम कर दिया। यही नहीं, उसने अधिकारी का कटा हुआ सिर पाकिस्तान सेना के शीर्ष अधिकारियों को पेश किया। इस पर खुश होकर तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ ने पाक सेना के कमांडो रहे कश्मीरी को एक लाख रुपये का इनाम दिया।
अखबार लिखता है कि कश्मीरी से मुशर्रफ को बेहद लगाव था। उन्होंने उसे आतंकी खेल खेलने की खुली छूट दे रखी थी। लेकिन 11 सितंबर, 2001 को अमेरिका में हुए आतंकी हमले के बाद दबाव के चलते मुशर्रफ को कश्मीरी के संगठन पर प्रतिबंध लगाना पड़ा।

कौन था इलियास कश्मीरी ??

कश्मीरी हरकल-उल-जिहाद अल-इस्लामी [हूजी] का कमांडर था। उसके संबंध अल कायदा और तालिबान सहित तमाम आतंकी संगठनों से थे। बताया जाता है कि वह पिछले सप्ताह ड्रोन हमले में मारा गया।
कश्मीरी पाकिस्तानी सेना के स्पेशल सर्विस गु्रप में बतौर कमांडो काम कर चुका था। अफगानिस्तान से रूसी सेना हटने के बाद पाक हुक्मरान ने उसे कश्मीरी आतंकियों के साथ काम करने के लिए भेजा था। तब 1991 में वह हूजी में शामिल हुआ। कुछ दिनों बाद हूजी प्रमुख कारी सैफुल्ला अख्तर से उसके मतभेद हो गए और उसने '313 ब्रिगेड' नाम से अपना संगठन बना लिया।
गुलाम कश्मीर के कोटली का रहने वाला कश्मीरी बारूदी सुरंग बिछाने में माहिर था। अफगानिस्तान में लड़ाई के दौरान उसकी एक आंख खत्म हो गई थी। उसे भारतीय सेना ने एक बार पूंछ इलाके में गिरफ्तार भी किया था। दो साल बाद वह जेल तोड़ कर भाग निकला था। वर्ष 1998 में कश्मीरी को भारतीय सेना पर हमले करने की जिम्मेदारी दी गई थी।
जैश-ए-मुहम्मद के गठन के बाद पाकिस्तानी सेना से कश्मीरी के रिश्ते खराब हो गए। सेना उसे जैश का सदस्य बनाना चाहती थी। सेना की इच्छा थी कि कश्मीरी जैश सरगना मसूद अजहर को नेता मान ले। पर उसे यह गवारा नहीं हुआ।
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क्या अब भी आप यह चाहते है कि परवेज़ मुशर्रफ़ भारत में आयोजित विभिन्न सेमिनारों में बतौर महेमान आयें ??
अगर हाँ , तो सिर्फ एक बात कहेनी है ......... जागो सोने वालों ......

रविवार, 20 सितंबर 2009

कब सचेत होंगे ??

मालिक के लिए जान की बाजी लगा देने वाले सेवक या नौकरों के किस्से अब पुराने हो गए हैं। निष्ठा और वफादारी की परिभाषा भी बदल चुकी है। मालिक कितना दौलतमंद है, उसके घर में कितने सदस्य हैं। किन कमजोर बिंदुओं से फायदा उठाया जा सकता हैं। वारदात करने का कौन सा समय उपयुक्त रहेगा। नौकरों के दिमाग में ये बातें उथल-पुथल मचाती रहती हैं। वारदातों की जांच में निकले तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है। उद्योगपतियों और बड़े अधिकारियों के घरों में नौकरों द्वारा वारदात करने की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता। देश की राजधानी में ऐसी कई वारदात हो चुकी हैं और बाकी देश  भी इनसे अछूता नहीं है। नौकर रखने के प्रति जनता को सतर्कता बरतने की अपील करने वाली पुलिस का एक अधिकारी का परिवार स्वयं चूक कर बैठा। रेवाड़ी में तैनात एसपी यमुनानगर के आवास में नियुक्त नौकर उनकी पत्नी और बेटे को बेहोश करके कीमती सामान चुराकर ले गया।

अधिकतर मामलों में यही हो रहा है कि बिना जांच के रखे गए नौकर से जान-माल का खतरा बना रहता है। नौकर को रखते समय जिस चौकसी की अपेक्षा की जाती है, वह बरती नहीं जा रही है। उसका पूरा नाम, पता, पृष्ठभूमि और चरित्र की जानकारी जुटा कर फोटो सहित इसको नजदीकी थाने में जमा करवाना चाहिए। वह पहले कहां काम करता था और वहां से उसने नौकरी क्यों छोड़ दी। इसकी छानबीन भी जरूरी है। कई परिवार अनजान नौकर पर विश्वास कर लेते हैं और पूरे घर को उसी के भरोसे छोड़ देते हैं। घर के बुजुर्गो और बच्चों को नौकर के भरोसे छोड़ कर शहर से बाहर जाना खतरे से खाली नहीं होता। घर में इन सदस्यों को देखकर नौकर की कभी भी नीयत बदल सकती है। मौका मिलते ही वे उन्हें क्षति पहुंचाकर घर का कीमती सामान लेकर चंपत हो जाते हैं। दुष्कर्म और हत्या के कई मामलों में घर का नौकर ही लिप्त पाया गया है। कुछ नौकर चालाकी दिखाते हुए स्वयं वारदात नहीं करते बल्कि किसी गिरोह के माध्यम से इसे अंजाम देते हैं। इन घटनाओं के बावजूद लोग सचेत नहीं हो रहे हैं। चाहे प्लेसमेंट एजेंसियों के माध्यम से ही नौकर क्यों न आए हों, पूरी तहकीकात के बाद ही उसकी सेवाएं लेने में ही समझदारी है।
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बात समझ आये तो ठीक...... नहीं तो दो रोटी ज्यादा खा कर, लम्बी तान कर सो जाओ | हर बार बताता हूँ ...सो आज भी बोल रहा हूँ, अपनी आदत है..... बोलने की बीमारी है .... तभी तो कहेते रहेते है .... जागो सोने वालो .....

शनिवार, 19 सितंबर 2009

उपेक्षा के दुष्परिणाम, भुगते जनता तमाम

अव्यवस्था को नजरअंदाज करने का खामियाजा जन साधारण को ही भुगतना पड़ता है। सड़कों की मरम्मत, बिजली के लटकते तार, पानी के अवैध कनेक्शन या पेयजल आपूर्ति की पाइपों में लीकेज की जब उपेक्षा होती है तो बड़ी घटनाएं होने पर ही सरकारी विभागों में हड़कंप मचता है।

अखबार में खबर छपी , "डायरिया फैलने से चार बच्चों सहित पांच लोगों की मौत हो गई और सैकड़ों उल्टी-दस्त से पीड़ित सिविल अस्पताल में भर्ती हैं। आरोप है कि पेयजल में गंदे पानी की सप्लाई हो रही है।",  तो अधिकारियों ने आनन-फानन प्रभावित क्षेत्र का दौरा किया और स्वास्थ्य विभाग की टीम ने पानी के सैंपल लिए। क्या यही निरीक्षण पहले नहीं होना चाहिए था कि कहां-कहां दूषित पानी की आपूर्ति हो रही है ?? 

लोग शिकायत करते हैं तो उस पर गंभीरता नहीं दिखाई जाती। बारिश के मौसम जल जनित बीमारिया फैलती ही हैं। सरकार ने जब पेयजल कनेक्शन नि:शुल्क दिए हुए है, फिर लोगों को अपने आप कनेक्शन जोड़ने की क्या जरूरत थी ?? स्वास्थ्य और जन स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों को ऐसे कनेक्शन मिलते हैं तो उन्हें तुरंत काट दें।  देश के विभिन्न जिलों में भी यही समस्या है। एक बार बीमारी फैल जाए तो स्वास्थ्य विभाग दावा करता है कि आगे से तमाम एहतियात बरते जाएंगे। मौसम बदलते ही सारे दावे फीके पड़ जाते हैं।

क्यों ना मानसून शुरू होते ही नालियों और खाली स्थानों पर भरे पानी की निकासी की व्यवस्था की जाए, फागिंग हो और कूड़े के ढेर न लगने दिए जाएं ??  

इस से काफी हद तक लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा की जा सकती है। इसमें दो राय नहीं कि बढ़ते उद्योग और कृषि रसायन के कारण भी भूमिगत जल दूषित हो रहा है। देश के जिन जिलों में औद्योगिक इकाइयां बढ़ रही हैं, वहां यह समस्या अधिक है। कई कालोनियों में पेयजल आपूर्ति की पाइप गंदी नालियों से होकर गुजर रही है। उनमें कब लीकेज हो जाए, इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता। इससे निपटने के लिए आम जनता को भी भागीदारी करनी होगी। उनके द्वारा अतिक्रमण करने और कूड़ा फेंकने से कई नालियों का अस्तित्व ही मिट चुका है। वह इसे रोके। इसीलिए बारिश होने पर पानी की निकासी नहीं हो पाती है। नालियों की सफाई होती रहे व घरों के आसपास पानी न रुके इस पर ध्यान देने की जरूरत है |
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वैसे हमे क्या, कौन सा हमारे घर के सामने कूड़े के ढेर लगे है या गन्दा पानी जमा है ??  अपनी गली तो भाई, रोज़ साफ़ होती है..... नगर पालिका चेयरमैन को वोट भी तो हमने ही दिलवाये थे ..............फ़िर हमारी गली गन्दी कैसे रह सकती है ??
वो तो जी, YOU JUST DON'T MIND ....... क्या है ना .... जी, अपनी तो कुछ आदत ही एसी है.......बस जी ,कहेते रहेते है ....कोई सुने ना सुने ............ जागो सोने वालों ..........

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

काहे के लोक सेवक ??


फिलहाल यह कहना कठिन है कि वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी द्वारा इकोनामी क्लास में हवाई सफर करने से उन केंद्रीय मंत्रियों को सही संदेश मिल गया होगा जो फिजूलखर्ची रोकने के कांग्रेस के अभियान को लेकर नाक-भौं सिकोड़ रहे हैं। यदि सभी केंद्रीय मंत्री और विशेष रूप से कांग्रेस के मंत्री इकोनामी क्लास में हवाई सफर करना शुरू कर देते हैं तो भी इस नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता कि फिजूलखर्ची पर लगाम लग गई। यह समझ पाना कठिन है कि कांग्रेस किफायत बरतने के अपने अभियान को केवल अपने ही मंत्रियों और सांसदों तक क्यों सीमित रखना चाहती है? यदि मंत्रियों और सांसदों द्वारा फिजूलखर्ची की जा रही है तो फिर यह अभियान सभी पर लागू होना चाहिए और कम से कम उसका दायरा संप्रग तक तो जाना ही चाहिए। यदि कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों के मंत्री और सांसद अपने यात्रा खर्च को सीमित कर लेते हैं तो इसके जो भी नतीजे सामने आएंगे वे भी अत्यंत सीमित होंगे, क्योंकि फिजूलखर्ची केवल यात्राओं के दौरान ही नहीं होती। केंद्रीय मंत्रियों के यात्रा व्यय के अतिरिक्त अन्य अनेक खर्च ऐसे हैं जिनमें अच्छी-खासी धनराशि खर्च हो रही है। यदि केंद्रीय मंत्रियों के केवल यात्रा खर्च और अन्य खर्चो को शामिल कर लिया जाए तो यह राशि करीब दो सौ करोड़ रुपये पहुंच जाती है। यह खर्च किस तेजी से बढ़ता चला जा रहा है, इसका प्रमाण यह है कि वित्तीय वर्ष 2005-06 में वेतन और यात्रा खर्च और अन्य भत्तों में व्यय कुल राशि सौ करोड़ रुपये से भी कम थी।
यदि कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता फिजूलखर्ची रोकने के प्रति वास्तव में गंभीर है तो उसे सरकारी कामकाज के तौर-तरीकों में बुनियादी बदलाव करना होगा और साथ ही उन अनेक परंपराओं से पीछा छुड़ाना होगा जो एक लंबे अर्से से चली आ रही हैं। फिजूलखर्ची केवल मंत्रियों द्वारा ही नहीं, बल्कि शीर्ष नौकरशाहों द्वारा भी की जा रही है। नि:संदेह यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि उच्च पदों पर बैठे नौकरशाह और नेतागण अपनी जीवनशैली को सामान्य व्यक्तियों की तरह ढाल लें, लेकिन यह भी नहीं होना चाहिए कि उनकी विशिष्टता राजसी ठाठ-बाट को मात देती नजर आए। यह भी विचित्र है कि फिजूलखर्ची रोकने का यह अभियान इस आधार पर शुरू किया गया है कि देश सूखे और मंदी का सामना कर रहा है। इस अभियान से तो यह प्रकट हो रहा है कि यदि सूखे और मंदी का दुर्योग एक साथ सामने नहीं आया होता तो कोई फिजूलखर्ची रोकने पर ध्यान नहीं देता। फिजूलखर्ची तो प्रत्येक परिस्थिति में रोकी जानी चाहिए, क्योंकि ऐसा न करने का अर्थ है संसाधनों की बर्बादी। एक ऐसे देश में जहां लगभग तीस प्रतिशत लोग भयावह निर्धनता से जूझ रहे हों वहां यह शोभा नहीं देता कि मंत्रीगण राजसी ठाठ-बाट में रहें। इससे भी अधिक अशोभनीय यह है कि जब इस ठाठ-बाट का उल्लेख किया जाए तो विरोध और नाराजगी के स्वर उभरें। इन स्वरों का उभरना यह बताता है कि हमारे आज के औसत राजनेता किस तरह अभी भी सामंतवादी मानसिकता से ग्रस्त हैं। ऐसी मानसिकता वाले राजनेता उच्च पदों पर तो विराजमान हो सकते हैं, लेकिन उन्हें लोकसेवक नहीं कहा जा सकता। 
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अब भैया इतना सब खर्चा कर के सांसद बने है, मंत्री बने है तो क्या थोड़े से भी ठाठ-बाट नहीं करे ?? यह भी कोई बात हुयी ?? हमारे मंत्री बनाने का फायेदा क्या मिला हमको फ़िर ?? हम तो करेगे, और रहेगे ठाठ-बाट से !! बोलो क्या करोगे ??  
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करो भाई खूब करो ठाठ-बाट हमने टैक्स इस लिए ही तो दिया था !! हमारी बात पे मत जाना ...... अपनी तो बस सिर्फ येही बुरी आदत है कहेने की......... जागो सोने वालो ..........
 

सोमवार, 14 सितंबर 2009

मैनपुरी का करहल रोड: बदहाली की दास्ता सुना रहा अपनी जुबानी

किसी समय नगर का व्यस्ततम मार्ग करहल रोड आज अपनी बदहाली की दास्तां स्वयं अपनी जुबानी सुना रहा है। पग-पग पर गहरे गढ्डे-गढ्डों में भरा नालियों से निकलता गंदा बदबूदार पानी जिससे होकर निकलते छोटे-बड़े वाहन, पैदल चलते लोगों के कपड़ों को तो खराब करते ही है, साथ ही मार्ग के दोनों तरफ व्यापार कर रहे दुकानदारों के खाद्य पदार्थो को भी दूषित करते हैं। मार्ग की दुर्दशा के चलते रिक्शे वाले तो इधर आने से ही तौबा कर जाते हैं। यही हाल है पुनर्निर्माण की राह देखते ऊबड़-खाबड़ करहल रोड का।
एक जमाना था जब नगर की आधी आबादी करहल रोड से होकर ही अपने एवं सरकारी कार्यो के लिए आती जाती थी। मैनपुरी से करहल तक आसपास स्थिति सैकड़ों ग्रामों के लोग अपनी दैनिक उपयोग की वस्तुयें खरीदने को इसी मार्ग से होकर बाजार करने आते थे। यह तब की बात है जब नगर क्षेत्र में तीन खाद्यान्न मण्डी हुआ करती थी। खाद्यान्न तिलन एवं दलहन का कारोबार राजा मण्डी, मण्डी मोतीगंज तथा मण्डी झम्मनलाल में बैठकर आढ़ती अपना कारोबार करते थे। जहां क्षेत्र का सैकड़ों किसान अपनी फसल बेचने के लिए आता था तब इस मार्ग का शहर के लिए अपना अलग महत्व था। नगर क्षेत्र का विकास हुआ, मण्डी शहर से बाहर स्थापित हो गयी। किसान का इधर से होकर गुजरना बंद हो गया मगर दैनिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए आना जाना बंद नहीं हुआ। करहल रोड बाईपास चौराह से शहर के बड़े चौराहे तक का लगभग 2.5 किमी. का टुकड़ा शासन की उपेक्षा के चलते अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है।
एक समय था जब करहल रोड नगर के मुख्य मार्गो में गिना जाता था। व्यापारी हजारों रुपया देकर भी किरायेदारी पर दुकान लेने को आतुर रहता था, जमाना बदला तो इस मार्ग की बदहाली के दिन शुरू हो गए। वर्षो पूर्व निर्मित सड़क योजनाओं में उपेक्षा के चलते धीरे धीरे गडढों में तब्दील होती गयी। अब आलम यह है कि जहां तक नजर दौड़ायें सड़क के स्थान पर गढ्डे ही गढ्डे ही दिखाई देते है। वर्षो से धीरे धीरे टूटती सड़क के दोनों तरफ की नालियों और सड़क में कोई अन्तर शेष नहीं रहा। नाली का गंदा पानी सड़क पर बहता है और सड़क की गंदगी नालियों में गडढों में भरा नालियों का बदबूदार गंदा पानी तब और भी परेशानी उत्पन्न कर देता है जब इस सड़क से होकर दुपहिया या चारपहिया वाहन गुजरता है तो गहरे गहरे गढ्डों में भरा गंदा पानी छिटककर या तो राहगीरों के कपड़े खराब कर देता है या सड़क के दोनों तरफ खाद्य सामग्री का व्यापार कर रहे व्यापारियों की दुकान में घुसकर सामान को प्रदूषित कर देता है और सब देखते रह जाते है। अपनी इस दशा पर दुकानदार और राहगीर, क्षेत्रीय प्रतिनिधि एवं जिला प्रशासन को कोसने के अलावा कुछ नहीं कर सकते है।
मार्ग की खस्ता हालत के चलते क्षेत्रीय लोगों ने इस मार्ग से होकर निकलने के बजाय अगल-बगल की गलियों से होकर निकलना शुरू कर दिया है, जिसका असर अब इस मार्ग के दोनों तरफ व्यापार कर रहे व्यापारियों पर साफ दिखाने लगान है। जहां कभी लोग दुकान पाकर अपने धनवान होने का सपना देखते थे। आज यहां व्यापार कर रहे अपने भाग्य को कोस रहे है। इसकी दयनीय दशा को सिद्ध करने के लिए इतना ही प्रमाण काफी है कि जब भी कोई बाहरी यात्री रोडवेज स्टेण्ड या रेलवे स्टेशन पर उतरकर रिक्शे वालों से इस रोड के क्षेत्रीय मुहल्लों में चलने को कहता है तो रिक्शे वाले का एक ही जवाब होता है कि न बाबा न किसी कीमत पर नहीं जाना। क्योंकि रिक्शा पलटा तो पिटने का डर तो है ही साथ ही रिक्शा टूटने से अपनी रोजी रोटी से भी दो चार दिन के लिए हाथ होना होगा। यात्री के ज्यादा जोर देने पर दुगने-तिगने भाड़े पर चलने को इसलिए तैयार होते है कि कई गलियों से घूमते हुए जाना पड़ता है।
ऐसा नहीं इस मार्ग से जुड़े क्षेत्रीय नागरिकों का सामाजिक संगठनों ने करहल रोड की बदहाली के खिलाफ आवाज नहीं उठाई। समय-समय पर धरना प्रदर्शन जन आंदोलन कर अधिकारियों का घिराव कर मांग भी की गयी और जनप्रतिनिधियों द्वारा इसके निर्माण के प्रस्ताव भी शासन तक भेजे गए मगर नतीजा सिफर ही रहा। अधिकारियों के आश्वासन तथा जनप्रतिनिधियों के प्रस्ताव कागजी खानापूर्ति बनकर रह गए। नगर की अन्य सड़कें सीसी हो गयी मगर करहल रोड उपेक्षा के चलते आज भी अपनी बदहाली की दास्तां आते जाने लोगों को दिखा अपनी किस्मत को कोस रहा है। 
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रोया करे जनता, कितना भी ख़राब हो रास्ता, अपन क्यों करे चिंता,
चिंता करने तो थोड़े ही बने हम अधिकारी या नेता ??
भाई, अपने पास तो गाडी है, चलती भी बहुत प्यारी है ,
हमे तो दुखी नहीं करता यह रास्ता, फ़िर क्यों करे हम चिंता ??
हम है अधिकारी बड़े या हम है नेता, हमे है देश की चिंता, रास्ते की चिंता करे जनता !! 
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भाई, मैं भी जनता ही हूँ !!
अब अगर मैं हर बार यह कहेता हूँ तो क्या गलत कहेता हूँ कि ...... जागो सोने वालो ........??????

रविवार, 13 सितंबर 2009

गुरु को दी अनूठी विदाई

गुरु का स्थान जीवन में सबसे बड़ा होता है, उनके प्रति सम्मान का भाव प्रकट करने के सबके अपने तरीके होते है। पिछले दिनों मुंबई के खासला कॉलेज के छात्रों ने अपने प्रधानाचार्य को कुछ इस प्रकार विदाई दी कि उनका मन अपने विद्यार्थियों को लेकर गर्व से भर उठा। विद्यार्थियों ने अपने प्रधानाचार्य डॉ. अजीत सिंह की विदाई के मौके पर यह तय किया कि वे अपने प्रिय शिक्षक के वजन के बराबर रक्त दान करेगे।
विदाई वाले दिन सुबह 11 बजे रक्तदान का कार्यक्रम शुरू हुआ जो सायं 5 बजे तक चला। इस रक्तदान में कॉलेज के छात्र-छात्राओं ने हिस्सा लिया। सबसे ज्यादा आनंद की बात यह रही कि छात्रों ने प्रधानाचार्य के वजन के बराबर 68 बोतल रक्तदान का लक्ष्य रखा था, पर इससे कहीं ज्यादा रक्तदान हुआ। विद्यार्थियों ने 73 बोतल रक्तदान किया, जिसे बाद में जरूरतमंदों की मदद के लिए सरकारी ब्लडबैंक को सौंप दिया गया। खालसा कॉलेज में इससे पहले भी कई बार रक्तदान शिविर आयोजित किए गए है, पर यह पहला मौका है जब किसी शिक्षक की विदाई के लिए विद्यार्थियों ने रक्तदान कार्यक्रम के आयोजन का फैसला किया।
इस मौके पर प्राचार्य डॉ. सिंह ने अपने हदय के उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि विद्यार्थियों की इस पहल ने मेरे दिल को छुआ है। मुझे इस संबंध में पहले कोई जानकारी नहीं थी। यह मेरे लिए सरप्राइज था। इस प्रकार की विदाई से अन्य संस्थानों को भी प्रेरणा मिलेगी। विदाई का इससे अच्छा तरीका और कुछ नहीं हो सकता। खालसा कॉलेज के प्रोफेसर प्रवीश विश्वनाथ कहते है कि रक्तदान मानवता की सहायता के लिए है। यह गुरु-शिष्य परंपरा का अनुकरणीय उदाहरण है और समाज में नए रक्त संचार का प्रतीक है। 
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एक ये छात्र है जो अपने गुरु को एक अनूठी विदाई देने के लए अपना खून बहा रहे है और रक्त दान जैसा पुनीत कार्य भी कर रहे है | दूसरी ओर कुछ वो छात्र है जिन्होंने अपने गुरु का रक्त बहाने जैसा घिनोना कार्य किया था और आज भी मज्जे से आजाद घूम रहे है  | यहाँ देखे :-

न्याय न होने का सबूत -- सभरवाल हत्याकांड

खैर साहब, हमे क्या....... ना तो हमने कभी गुरु को खून दिया..........और ना ही गुरु का खून बहाया .....

अपनी तो भैया एक बहुत बुरी आदत है सो बोल रहे है कि ........ जागो सोने वालो .........

शनिवार, 12 सितंबर 2009

क्या बेटा और क्या बेटी ?

बेटा ही देगा बाप को मुखाग्नि और करेगा पिंडदान, इस मिथक को यहाँ बिहार विवि से पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही युवती अनुभूति उर्फ छोटी ने तोड़ दिया है। शुक्रवार को उसके पिता की बारहवीं [द्वादशा] थी और इस दौरान मिठनपुरा स्थित दुर्गा मंदिर परिसर में वह बेटे का फर्ज निभाते हुए श्राद्ध की सारी रस्में निभा रही थी। मौजूद लोगों की आंखें नम थीं और लड़की के प्रति आदर के साथ सहानुभूति का भाव भी।
पिता के श्राद्ध पर बेटी के पिंडदान करने की खबर जंगल की आग की तरह शहर में फैली और इस घटना को देखने मात्र के लिए वहाँ हुजूम उमड़ पड़ा। उधर, गुमसुम छोटी अपने पिता की आत्मा की शांति  के लिए घटों बेदी पर रस्म निभाने में मशगूल थी। पंडित मंत्रोच्चार करते रहे। छोटी की माँ उमा तिवारी, जो स्थानीय महंथ दर्शन दास महिला महाविद्यालय में लाइब्रेरियन के पद पर कार्यरत हैं ने बताया कि क्या बेटा और क्या बेटी? छोटी ने तो सब बराबर कर दिया। शोकाकुल उमा ने बताया कि उनके पास दो बेटिया ही हैं-ईप्सिता और छोटी। आज पिता का अंतिम संस्कार कर छोटी ने बेटे का फर्ज निभा दिया।
उधर, श्राद्धकर्म करा रहे आचार्य पं.धनश्याम उपाध्याय तथा पुरोहित भोला मिश्र ने बताया कि शास्त्र के अनुसार पुत्र के अभाव में पत्नी, पत्नी के अभाव में सहोदर, सहोदर के अभाव में बंधु, बंधु के अभाव में राजा और राजा के अभाव में पुरोहित श्राद्धकर्म कर सकता है। शास्त्र के अनुसार पुत्र की जगह पुत्री ने उत्तम लोक की प्राप्ति के लिए पिता का श्राद्ध कर्म किया, यह उत्तम बात है। उन्होंने ही बताया कि बारह दिनों पहले लंबी बीमारी से पिता राकेश तिवारी की मौत के बाद उन्हें छोटी ने मुखाग्नि भी दी थी।
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छोटी ने तो अपना फ़र्ज़ निभा दिया, अब बारी समाज की है !!  देखते है वो कब नींद से जागता है ?? 
खैर, साहब जागे ना जागे, हम तो कहेते रहेगे ...... जागो सोने वालों ...... 
 

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

THANK YOU , ओसामा अंकल !!!

आप लोगो का क्या है आप तो यहाँ आते है मज्जा लेने कि चलो कुछ मस्ती हो जाये | भाड़ में जाये आप की मस्ती और भाड़ में जाओ ......ना जी ना आगे नहीं बोलूगा .....पीटना थोड़े ही है |
लेकिन आप की मस्ती के चक्कर में आज कितनी बड़ी गलती हुए जा रही थी मुझ गरीब से ........

आज कौन सा दिन है ??
बोलो जी बोलो ??
मालूम था... आप भी भूल गए होगे ??

अरे ,आज ९/११ है भाई !!!

कुछ याद आया ??

नहीं ??

क्या, आप भी ना !!!

अरे, वही ९/११ जब अंकल सैम को अंकल ओसामा ने आईना दिखाया था !!
अब याद आया ??
क्या कहा आ गया याद ....
चलो गनीमत है, याद तो आया !!

आज के दिन हम सब को (यानि सब भारत वासीयों को) ओसामा अंकल को THANK YOU बोलना चाहिए, फ़िर उलझ गए, thank you इस लिए कि आज के दिन के बाद ही तो अंकल सैम ने माना था कि हम लोग भी आतंकवाद नामक बीमारी के मरीज है और वो भी १९४७ के तुंरत बाद से !! नहीं तो ९/११ से पहेले तक हम लोग "स्वतंत्रता सैनानियों" के कोप के शिकार थे |
 अब आप लोगो से बाद में बात होगी, पहेले जरा इनसे निबट लिया जाये |

वहाँ एक ९/११ के होते ही पूरे विश्व में आतंकवाद के खिलाफ मुहीम शुरु हो गयी, यहाँ हम सालो से कहेते रहे तब किसी के कानो तक आवाज़ नहीं गयी | क्यों भाई, तुम्हारे लोग मरे तब पता चला दर्द क्या होता है?? वैसे तो 'विश्व विधता' बने फिरते हो !? जहाँ चाहा बम गिरा दिया, कभी पलट कर देखा किस पर गिरा ??

जब खुद पर 'हवाई' बम गिरे तो क्यों फट गयी तुम्हारी ग***  ??

भैया,हम लोगो को तो अब आदत हो गयी है एसे मरने की, तुम्हारे लिए अच्छा होगा कि तुम भी आदत डाल लो क्यों कि जिस (न)पाकिस्तान को तुम अपनी गोद में बैठा रहे हो वो ही ओसामा अंकल और उनके संगी साथीयो को पनाह देता है,खिलाता पिलाता है, उसी पैसे के बल पर जो तुम 'जेबखर्च' के नाम पर उसे देते हो| कल उसी पैसे का 'सदुपियोग' तुम पर होगा तब फ़िर मत रोना !! क्यों कि तुम में और हम में बहुत फर्क है...तुम ठहरे नाज़ुक - नाज़ुक और हमारे बारे में 'इकबाल' साहब  ने कहा था ....

है बात कुछ कि हस्ती , मिटती नहीं हमारी,
सदियों रहा है दुश्मन, आहेले जहाँ हमारा || 

इसलिए, भैया सुधरो या सिधारो  !!! 


और वैसे जो मर्ज़ी करो यार, अपना क्या जाता है ?? 
अपनी तो आदत है सो कहेते है ....जागो सोने वालो .....

महिला प्रधान और काम काज करते हैं परिजन

सरकार की मंशा भले ही पंचायतों में ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को प्रधानी के लिए आरक्षण हो लेकिन हकीकत है कि अधिकांश महिलाएं आज भी प्रधान होते हुए भी चौका चूल्हे तक सीमित हैं। प्रधान चुनकर भी वे नारी सशक्तिकरण को साकार नहीं कर पाती स्थित यह है कि अधिकांश महिला प्रधानों के कार्य उनके पति भाई या अन्य सहयोगी ही निपटाते हैं अब जब महिलाओं का आरक्षण बढ़ाने की बात हो रही है। तो फिर स्थित क्या होगी इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।
मैनपुरी के बेवर ब्लाक क्षेत्र में कई ग्राम पंचायतों में बीते चुनावों में महिला सीट आरक्षित हो गयी तो प्रधान जी ने पत्‍‌नी को उम्मीदवार बना दिया और वह प्रधान चुन भी ली गयी। पर पंचायत के काम काज से उनका कोई मतलब नहीं रहा। प्रधानों की बैठक में आयीं भी तो अनजान बनी बैठी रही। प्रधानी का पूरा काम उनके भाई या पति ही देखते रहे। प्रधानी कार्यकाल का पांच साल बीतने को है पर कई महिला प्रधान घूंघट की ओट से ही प्रधानी करती रही | न खुली बैठक में सवालों के जवाब देना और न समस्याओं के लिए मुख्यालय के चक्कर लगाना | कही मौजूदगी जरुरी हुई तो पति के पास मूर्ति बनकर खड़े हो गये। ब्लाक क्षेत्र में ऐसी कई ग्राम पंचायतें हैं। जहां महिला प्रधान है जब भी गांव के विकास कार्यो की समीक्षा के लिए उच्चाधिकारी आते हैं तो महिला प्रधान नजर नहीं आती अधिकारियों को मौका मुआयना कराने और उन्हें संतुष्ट करने का काम उनके पति के जिम्मे रहता है।
हकीकत तो यह है ग्राम पंचायतों में चुनी गयी अधिकांश महिला प्रधानों को पंचायत की राजनीति में न तो पहले दिलचस्पी थी न प्रधानी के बाद | उन्होंने तो सिर्फ पति के आदेश का पालन किया अब भला पंचायत राज अधिनियम की धाराएं उनके सिर से ऊपर होकर क्यों न निकले वैसे भी पति देव प्रधानी चलाते चलाते इतने निपुण हो गये कि प्रधान जी को दस्तखत करने का कष्ट तब तक नहीं देते जब तक बहुत जरुरी न हो या कोई कानूनी पचड़ा न हो | ऐसा भी नहीं कि अधिकारियों को इसकी जानकारी न हो, कई ग्राम पंचायतों में खुली बैठकों में महिला प्रधान के स्थान पर उनके पति सवालों के जवाब व लेखा जोखा पेश करते हैं। स्थित यह है कि महिला प्रधान के हस्ताक्षर कराना भी उनके पति जरुरी नहीं समझते हैं। 
खैर साहब हमें क्या,...अपनी तो सिर्फ आदत है कहेने की ...जागो सोने वालो.....

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

चंद ही घंटों में नया इतिहास रचने वाला है

सीमा सुरक्षा बल [बीएसएफ] में हाल ही में शामिल की गई महिला सुरक्षाकर्मी चंद ही घंटों में नया इतिहास रचने वाली है। शुक्रवार से पंजाब में भारत-पाकिस्तान सीमा की निगहबानी के लिए पहली बार 178 महिला सुरक्षाकर्मियों को तैनात किया जा रहा है।
बीएसएफ के पंजाब सीमा के उप महानिरीक्षक जागीर सिंह ने बताया कि सभी 178 महिला सुरक्षाकर्मियों को अंतरराष्ट्रीय सीमा पर तैनात किया जाएगा। प्रारंभ में सभी महिला सुरक्षाकर्मियों को पंजाब में भारत-पाक सीमा [553 किलोमीटर] पर तैनात किया जाएगा लेकिन बाद में इनमें से 60 को भारत-बांग्लादेश सीमा पर तैनात किया जाएगा।
महिला सुरक्षाकर्मियों को युद्ध संबंधी कार्यो का भार नहीं सौंपा जाएगा हालांकि बीएसएफ के अधिकारियों का कहना है कि सभी 178 महिला सुरक्षाकर्मी हथियारों के इस्तेमाल, गश्त और युद्ध से संबंधित अन्य कार्यो में दक्ष है।
अधिकांश महिला सुरक्षाकर्मियों की उम्र 19 से 25 वर्ष के बीच है। सिंह ने कहा कि महिला सुरक्षाकर्मी सीमा द्वारों की देखभाल करेगी और खेती के लिए जाने वाली महिलाओं की तलाशी लेंगी। उन्होंने कहा कि इन कार्यो के अलावा महिला सुरक्षाकर्मी सभी सीमा चौकियों [बीओपी] की भी निगरानी करेगी।
महिला सुरक्षाकर्मियों के रहने लिए बीएसएफ ने क्वार्टर्स बनाए है। सिंह ने कहा कि जहां ये क्वार्टर्स नहीं बने है वहां महिलाओं के आवास की वैकल्पिक व्यवस्था की गई है।
बीएसएफ में शामिल महिला सुरक्षाकर्मियों में अधिकांश पंजाब की है। इसके अलवा कुछ पश्चिम बंगाल और असम की है। इन सभी को 38 सप्ताह का प्रशिक्षण मिला है।
नई महिला सुरक्षाकर्मियों में 15 स्नातकोत्तर और 22 स्नातक है, जबकि 128 ने 12वीं तक की पढ़ाई की है।
जो लोग अब भी लड़की के पैदा होने पर अपने कर्मो को रोते है, उनको हम अपनी आदत से मजबूर हो कर एक ही बात कहेगे ....
जागो सोने वालो ...............

भारतीय लोकतंत्र का कृत्रिम चेहरा

वर्षों पहले लोकतंत्र की परिभाषा करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने कहा था-ऐसा तंत्र जो आम लोगों का होता है, आम लोगों द्वारा संचालित होता है और आम लोगों के लिए होता है। हमारे देश की लोकसभा ऐसे ही आम लोगों का प्रतिनिधित्व करती है, किंतु क्या स्वतंत्र भारत की पंद्रहवीं लोकसभा सचमुच आम कहे जाने वाले लोगों की प्रतिनिधि सभा है? 
इस बार की लोकसभा तो ऐसी नहीं दिखती। लोकसभा के कुल सदस्यों की संख्या साढ़े पांच सौ से कुछ कम होती है। इस बार जो सदस्य चुन कर लोकसभा में आए हैं उनमें 300 से अधिक करोड़पति हैं। पिछले लोकसभा में ऐसे सदस्यों की गिनती 154 थी। यदि लोकसभा के सदस्यों की संख्या को देश की समूची आर्थिकता का पैमाना मान लिया जाए तो यह कहा जा सकता है कि गत पांच वर्षो में इस देश के आम आदमी की आर्थिक स्थिति दो गुना अच्छी हो गई है, किंतु क्या ऐसा हुआ है? 
आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा से कांग्रेस टिकट पर चुनकर आए लगदापति राजगोपाल सबसे समृद्ध संसद सदस्य हैं। इनके पास 295 करोड़ रुपये की संपत्ति है। दूसरे स्थान पर भी खामम्भ क्षेत्र से तेलगूदेशम पार्टी के सदस्य नागेश्वर राव हैं। इनके पास 173 करोड़ रुपये की चल-अचल संपत्ति है। हरियाणा में कुरुक्षेत्र से कांग्रेस टिकट पर चुने गए सदस्य नवीन जिंदल भी बहुत पीछे नहीं हैं। ये 131 करोड़ रुपये की संपत्ति के स्वामी हैं। भंडारा-गोंदिया से राष्ट्रवादी कांग्रेस के सांसद प्रफुल्ल पटेल 90 करोड़ की संपत्ति के मालिक हैं। आंध्र प्रदेश के पेड़ापल्ली क्षेत्र से कांग्रेस टिकट पर चुने गए डा. जी विवेकानंद 73 करोड़ के मालिक हैं। दिवंगत मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी के पुत्र जगनमोहन कांग्रेस के सांसद हैं और 72.8 करोड़ रुपये की संपत्ति उनके पास है।
पंजाब से शिरोमणि अकाली दल के टिकट पर चुनी गई सांसद हरसिमरन कौर के पास 60 करोड़ से अधिक की संपत्ति है। उनसे थोड़ा पीछे केंद्रीय कृषि मंत्री श्री शरद यादव की पुत्री सुप्रिया सुले 50 करोड़ से अधिक की स्वामिनी कही जाती हैं। गौतम बुद्ध नगर, नोएडा से बसपा के सांसद सुरेंद्र सिंह नागर और बेंगलूर से जनता दल के सांसद एचडी कुमारस्वामी भी 50 करोड़ के आसपास की संपत्ति के मालिक हैं। प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) से कांग्रेस की ओर से विजयी राजकुमारी रत्ना सिंह यह नहीं मानतीं कि वह धनवान हैं, क्योंकि उनके पास केवल 67 करोड़ मूल्य की संपत्ति है। यह हैं दस सबसे अमीर सांसद, जिनमें 5 को कांग्रेस ने अपना टिकट दिया था। सबसे अधिक करोड़पति सांसद भी कांग्रेस के पास है। 300 में से 138 सांसद कांग्रेस के हैं। भाजपा के 58, सपा के 14 और बसपा के 13 सांसद करोड़पति हैं। 
लोकसभा के सदस्यों के संबंध में विचार करते समय एक बात और दृष्टव्य है। नई लोकसभा में 150 सांसद ऐसे हैं जिनकी पृष्ठभूमि आपराधिक है। पिछली लोकसभा में इनकी संख्या 128 थी। आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों में 72 सदस्य ऐसे हैं जिनके विरुद्ध गंभीर अपराध के मामले दर्ज हैं। अपराधी पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को अपना उम्मीदवार बनाने में कोई भी राजनीतिक दल किसी दूसरे दल से पीछे नहीं है। इस बार कांग्रेस पार्टी के 206 सदस्यों में 41 सदस्य ऐसे हैं जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। औरों से अलग दल होने का दावा करने वाली भाजपा की स्थिति बहुत चौंकाने वाली है। इस बार भाजपा के टिकट से चुने गए 116 सासदों में से 42 लोग आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हैं, कांग्रेस से एक अधिक। आपराधिक रिकार्ड वाले व्यक्तियों को लोकसभा में भेजने के मामले में इन दो प्रमुख राजनीतिक दलों के अलावा दूसरे दल भी किसी से पीछे नहीं हैं। सपा के 36 प्रतिशत सांसदों की पृष्ठभूमि आपराधिक है। बसपा के टिकट पर जीतने वाले 29 प्रतिशत सदस्यों का रिकार्ड आपराधिक है।
चिंताजनक स्थिति यह है कि वर्तमान लोकसभा के अधिकांश सदस्य या तो करोड़पति हैं या अपराधी वृत्ति वाले हैं। कुछ लोग तो ऐसे भी हैं जिन्होंने अपराध का सहारा लेकर अकूत धन एकत्र किया है अथवा धन का सहारा लेकर अपराध की दुनिया में प्रवेश किया है। इस देश की राजनीति में धन और अपराध की जुगलबंदी आज का कटु यथार्थ बन गई है। इस बार जो चुनाव हुए थे उसमें सभी राजनीतिक दलों ने आम आदमी की बहुत चर्चा की थी। आम आदमी को जीवन की मूलभूत सुविधाएं प्राप्त हों, उसका जीवन स्तर ऊपर उठे, इसके प्रति सभी दलों ने अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की थी, किंतु सभी जानते हैं कि भारत के आम आदमी की स्थिति कैसी है? एक अरब से अधिक की जनसंख्या वाले इस देश में आज भी लगभग 30 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं। करोड़ों लोग झुग्गी-झोपडि़यों में रहते हैं। इनके सिर पर ठीक-ठाक छत नहीं है। ऐसे निर्धन देश में सांसद और विधायक यदि करोड़पति हैं तो वे आम लोगों के दु:ख-दर्द के कितने सहभागी बन सकेंगे, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
इस बार चुनाव आयोग ने यह अनिवार्य कर दिया था कि जिस व्यक्ति को चुनाव लड़ना है उसे अपनी चल-अचल संपत्ति को ब्यौरा देना होगा। वे लोग जो दूसरी या तीसरी बार चुनाव के मैदान में थे, उन्होंने 2004 में हुए चुनाव के समय के आंकड़े भी दिए थे। अधिसंख्य उम्मीदवारों की संपत्ति पिछले चुनाव से इस चुनाव तक दोगुनी हो गई थी। क्या आम आदमी की आर्थिक स्थिति में भी इस अवधि में इतनी प्रगति हुई है? एक समय नारा दिया गया था-गरीबी हटाओ। गरीबी तो बहुत थोड़ी हटी, अमीरी जरूर बहुत बढ़ी है। गरीब व्यक्ति जहां का तहां है। आज दाल-रोटी जैसा आम भोजन भी आम आदमी की पहुंच से बाहर हो गया है। कैसी विडंबना है? देश के आम लोगों की सभा समझी जाने वाली लोकसभा करोड़पतियों से भरी हुई है और आम आदमी दरिद्रता के बोझ से पिसता जा रहा है।

                                  - डा. महीप सिंह [लेखक जाने-माने साहित्यकार हैं]

खैर, साहब हमे क्या .... हमे तो आदत है कहेने की ....जागो सोने वालो ....

बदहाली का प्रमाण - उत्तर प्रदेश से उद्योग-धंधों का दूसरे राज्यों में पलायन

उत्तर प्रदेश से उद्योग-धंधों का दूसरे राज्यों में पलायन जितना आश्चर्यजनक है उतना ही आघातकारी भी। इस पलायन से यह भी साबित होता है कि उद्योग-धंधों के विकास के मामले में उत्तर प्रदेश बिहार से भी कहीं अधिक खराब स्थिति में पहुंच गया है। इसका सीधा मतलब है कि उत्तर प्रदेश में उद्योगों के विकास के लिए जबानी जमाखर्च के अतिरिक्त और कुछ नहीं किया जा रहा है। यह तो समझ में आता है कि अनेक रियायतों और सहूलियतों के कारण उत्तर प्रदेश के उद्योग उत्तराखंड की ओर आकर्षित हो रहे थे, लेकिन उनके बिहार की ओर रुख करने से तो यह स्पष्ट हो रहा है कि उत्तर प्रदेश उद्योगों के लिहाज से कतई उपयुक्त नहीं रह गया है। बात केवल यही नहीं है कि बिहार उत्तर प्रदेश के उद्योगों को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हो रहा है, बल्कि अन्य अनेक मामलों में भी वह आगे निकलता जा रहा है। योजना आयोग की मानें तो कृषि के आधुनिकीकरण में बिहार ने उत्तर प्रदेश की तुलना में उल्लेखनीय प्रगति की है।

यह निराशाजनक है कि राज्य सरकार उन कारणों से भलीभांति अवगत होने के बावजूद एक प्रकार से हाथ पर हाथ धरे बैठी है जिनके चलते उत्तर प्रदेश में न केवल नए उद्योग नहीं स्थापित हो पा रहे हैं, बल्कि स्थापित उद्योग दूसरे राज्यों में पलायन कर रहे हैं। पता नहीं क्यों यह समझने से इनकार किया जा रहा है बिजली और बुनियादी विकास के अभाव में उद्योगों को आकर्षित नहीं किया जा सकता? राज्य सरकार उद्योगों के विकास के मामले में चाहे जैसा दावा क्यों न करे, लेकिन यथार्थ यह है कि वर्तमान में उसकी उपलब्धियों के खाते में कुछ भी नजर नहीं आता। इस पर आश्चर्य भी नहीं, क्योंकि इस समय उसकी एकमात्र प्राथमिकता पार्को और स्मारकों का निर्माण नजर आ रही है। यद्यपि राज्य सरकार ने उच्चतम न्यायालय की फटकार के बाद स्मारकों और पार्को के निर्माण पर स्वेच्छा से रोक लगा दी है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि उसकी प्राथमिकता भी बदल गई है। यदि उत्तर प्रदेश शासन की प्राथमिकता नहीं बदली तो यह तय है कि आने वाले समय में यह राज्य हर मामले में बिहार और अन्य पिछड़े राज्यों से भी पीछे रह जाएगा। 

खैर, साहब हमें क्या... अपनी तो आदत है कहेने की कि ...जागो सोने वालों ....