फिलहाल यह कहना कठिन है कि वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी द्वारा इकोनामी क्लास में हवाई सफर करने से उन केंद्रीय मंत्रियों को सही संदेश मिल गया होगा जो फिजूलखर्ची रोकने के कांग्रेस के अभियान को लेकर नाक-भौं सिकोड़ रहे हैं। यदि सभी केंद्रीय मंत्री और विशेष रूप से कांग्रेस के मंत्री इकोनामी क्लास में हवाई सफर करना शुरू कर देते हैं तो भी इस नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता कि फिजूलखर्ची पर लगाम लग गई। यह समझ पाना कठिन है कि कांग्रेस किफायत बरतने के अपने अभियान को केवल अपने ही मंत्रियों और सांसदों तक क्यों सीमित रखना चाहती है? यदि मंत्रियों और सांसदों द्वारा फिजूलखर्ची की जा रही है तो फिर यह अभियान सभी पर लागू होना चाहिए और कम से कम उसका दायरा संप्रग तक तो जाना ही चाहिए। यदि कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों के मंत्री और सांसद अपने यात्रा खर्च को सीमित कर लेते हैं तो इसके जो भी नतीजे सामने आएंगे वे भी अत्यंत सीमित होंगे, क्योंकि फिजूलखर्ची केवल यात्राओं के दौरान ही नहीं होती। केंद्रीय मंत्रियों के यात्रा व्यय के अतिरिक्त अन्य अनेक खर्च ऐसे हैं जिनमें अच्छी-खासी धनराशि खर्च हो रही है। यदि केंद्रीय मंत्रियों के केवल यात्रा खर्च और अन्य खर्चो को शामिल कर लिया जाए तो यह राशि करीब दो सौ करोड़ रुपये पहुंच जाती है। यह खर्च किस तेजी से बढ़ता चला जा रहा है, इसका प्रमाण यह है कि वित्तीय वर्ष 2005-06 में वेतन और यात्रा खर्च और अन्य भत्तों में व्यय कुल राशि सौ करोड़ रुपये से भी कम थी।
यदि कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता फिजूलखर्ची रोकने के प्रति वास्तव में गंभीर है तो उसे सरकारी कामकाज के तौर-तरीकों में बुनियादी बदलाव करना होगा और साथ ही उन अनेक परंपराओं से पीछा छुड़ाना होगा जो एक लंबे अर्से से चली आ रही हैं। फिजूलखर्ची केवल मंत्रियों द्वारा ही नहीं, बल्कि शीर्ष नौकरशाहों द्वारा भी की जा रही है। नि:संदेह यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि उच्च पदों पर बैठे नौकरशाह और नेतागण अपनी जीवनशैली को सामान्य व्यक्तियों की तरह ढाल लें, लेकिन यह भी नहीं होना चाहिए कि उनकी विशिष्टता राजसी ठाठ-बाट को मात देती नजर आए। यह भी विचित्र है कि फिजूलखर्ची रोकने का यह अभियान इस आधार पर शुरू किया गया है कि देश सूखे और मंदी का सामना कर रहा है। इस अभियान से तो यह प्रकट हो रहा है कि यदि सूखे और मंदी का दुर्योग एक साथ सामने नहीं आया होता तो कोई फिजूलखर्ची रोकने पर ध्यान नहीं देता। फिजूलखर्ची तो प्रत्येक परिस्थिति में रोकी जानी चाहिए, क्योंकि ऐसा न करने का अर्थ है संसाधनों की बर्बादी। एक ऐसे देश में जहां लगभग तीस प्रतिशत लोग भयावह निर्धनता से जूझ रहे हों वहां यह शोभा नहीं देता कि मंत्रीगण राजसी ठाठ-बाट में रहें। इससे भी अधिक अशोभनीय यह है कि जब इस ठाठ-बाट का उल्लेख किया जाए तो विरोध और नाराजगी के स्वर उभरें। इन स्वरों का उभरना यह बताता है कि हमारे आज के औसत राजनेता किस तरह अभी भी सामंतवादी मानसिकता से ग्रस्त हैं। ऐसी मानसिकता वाले राजनेता उच्च पदों पर तो विराजमान हो सकते हैं, लेकिन उन्हें लोकसेवक नहीं कहा जा सकता।
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अब भैया इतना सब खर्चा कर के सांसद बने है, मंत्री बने है तो क्या थोड़े से भी ठाठ-बाट नहीं करे ?? यह भी कोई बात हुयी ?? हमारे मंत्री बनाने का फायेदा क्या मिला हमको फ़िर ?? हम तो करेगे, और रहेगे ठाठ-बाट से !! बोलो क्या करोगे ??
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करो भाई खूब करो ठाठ-बाट हमने टैक्स इस लिए ही तो दिया था !! हमारी बात पे मत जाना ...... अपनी तो बस सिर्फ येही बुरी आदत है कहेने की......... जागो सोने वालो ..........
सही तो है..मंत्री बनाने का फायेदा क्या :)
जवाब देंहटाएंभई यही तो है राज नीति !
जवाब देंहटाएंजबरदस्त लेख, बेहतरीन व्यंग,
जवाब देंहटाएंइसे पढने और टिपण्णी करने पर भी टैक्स लगा दीजिये, ताकि अपने मंत्री लोगों को अपनी सुविधाओं में कोई कटौती न करनी पड़े.................
हार्दिक बधाई.
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
वाह वाह क्या बात है! बहुत बढ़िया लिखा है आपने! आख़िर इसी को ही राजनीती कहते हैं!
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