सोमवार, 26 जुलाई 2010
विजय दिवस पर विशेष :- नहीं भुलने चाहिए कारगिल युद्ध के सबक
गुरुवार, 22 जुलाई 2010
एक सवाल - क्यों कहें हम इन्हें माननीय?
इन्हें हम माननीय कहते हैं। कहें भी क्यों न, ये सरकार के समक्ष जनता का प्रतिनिधित्व जो करते हैं। जनता और सरकार के बीच एक मजबूत कड़ी बनकर आम आदमी के लिए काम करते हैं। इनके हर कदम सराहनीय और अनुकरणीय होते हैं। लेकिन पिछले कुछ समय से हमारे सांसदों और विधायकों की जो छवि सामने आई है, क्या वह इनके माननीय होने पर सवालिया निशान नहीं लगाती ??
कभी सदन में माइक उखाड़ना तो कभी कुर्सी-मेजें तोड़ना। कई बार तो आपस में हाथापाई कर इन लोगों ने सदन को अखाड़ा तक बना डाला। बुधवार को तो हद ही हो गई। बिहार के कुछ माननीयों ने तो स्पीकर पर चप्पल तक फेक दिया। अब प्रश्न यह उठता है कि शर्मसार करने वाली इस घटना के बाद कोई भला इन्हें माननीय क्यों कहे...??
बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और गोवा में जो पॉलिटिकल 'ड्रामा' चल रहा है, उसे राष्ट्रीय स्तर पर सदन में अक्सर चलने वाले 'नाटक' से जोड़ कर देखा जा सकता है। देश की सबसे बड़ी पंचायत में होने वाले हंगामे से राज्य स्तर पर भी नेता खूब 'प्रेरणा' लेते हैं। जनता के प्रति जवाबदेह इन नेताओं की ऐसी करतूत से उनका भले ही कुछ न बिगड़े लेकिन गरीबी, महंगाई की मारी जनता की गाढ़ी कमाई जरूर पानी में बह रही है।
रुपए की बर्बादी
एक संस्था द्वारा कराए गए अध्ययन के आकड़े बताते हैं कि संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर 25,000 रुपये से भी ज्यादा [यानी एक घटे में 15 लाख रुपये] खर्च होते हैं. इस बार की बात करें तो बजट सेशन 385 घंटे का तय हुआ था। इनमें से लोकसभा में 70 घंटे [निर्धारित घंटों का 36%] बर्बाद हुआ। वहीं राज्यसभा की बात करें तो लगभग 45 घंटे यानी निर्धारित घंटों का 28% समय बेकार गया। लोकसभा में 138 घंटे और राज्यसभा में 130 घंटे को इस्तमाल किया गया। इस तरह इस सत्र में कुछ 117 घंटों का समय माननीयों के व्यवधान के कारण बर्बाद हो गया। अध्ययन के मुताबिक इस दौरान लगभग 18 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। एक अनुमान के मुताबिक विधानसभाओं के मामले में भी काफी अधिक खर्च आता है। यानी भ्रष्टाचार के विरोध के नाम पर नाटक करने वाले केवल कुछ विधायकों की करतूत के चलते जनता के करोड़ों रुपये पानी में गए।
जनता बदहाल
यह हाल उस देश के सांसदों का है, जहा के लोगों की प्रति व्यक्ति सालाना आमदनी 38000 रुपये है। जिस बिहार में यह ड्रामा चल रहा है, वहा लोगों की प्रति व्यक्ति सालना आय तो 10000 रुपये से भी कम है।
माल-ए-मुफ्त
सासद-विधायक हंगामा करके ही जनता के पैसे में आग नहीं लगाते हैं, वे उनके पैसे खर्च करने में भी ज्यादा दिमाग नहीं लगाते, ताकि पैसे का अधिकतम सदुपयोग हो सके। संसद में बजट से जुड़े मुद्दों पर चर्चा के लिए दिए जाने वाले समय का औसत वर्ष 1952 से 1979 के बीच 23% था। 1980 के बाद के वर्षो में यह औसत 10% पर पहुंच गया है। 2004 में तो वित्त विधेयक बिना चर्चा के पास हो गया।
खुद पर खर्च
जनता का पैसा बिना सोचे-समझे खर्च करने का नतीजा यह रहा कि सासद अपने ऊपर ही खर्च बढ़ाने में खूब आगे रहे। 1993-94 में प्रति सासद सरकारी खर्च 1.58 लाख रुपये बैठता था। दस साल [2003-04] में ही यह आकड़ा 55.34 लाख पर पहुंच गया। यानी 3,400% का इजाफा! इसी अवधि में उपभोक्ता मूल्य सूचकाक में 500% और सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह में करीब 900% की बढ़ोतरी दर्ज की गई। पिछले पाच सालों में भी सासदों पर सरकार का खर्च बढ़ा ही है और अब तो सासद अपनी तनख्वाह 80 हजार रुपये प्रति महीना करवाने वाले हैं। यह हाल तब है जब सदन में उनका काम लगातार घट रहा है। 1980 में सदन का सत्र औसतन 143 दिन चलता था, जो 2001 में 90 दिन पर आ गया था।
अगर आप चौदहवीं लोकसभा से जुड़े इन तथ्यों पर गौर फरमाए तो हकीकत जानकार आश्चर्य में पड़ जाएंगे।
ø 2008 में लोकसभा की बैठक मात्र 46 दिन हुई। इतिहास में सबसे कम लोकसभा की कार्यवाही चलाने में सरकार के 440 करोड़ रुपए खर्च हुए।
ø काम की इतनी हड़बड़ी रही कि 17 मिनट में आठ बिल पारित कर दिए गए वह भी बिना किसी बहस के।
ø राज्यसभा ने भी जल्दबाजी दिखाई और 20 मिनट में तीन बिल निपटा दिए गए।
ø जनता के 56 नुमाइंदों ने पाच साल के पूरे कार्यकाल में संसद में एक सवाल पूछने की भी जहमत नहीं उठाई।
ø 67 सासद ऐसे थे, जिन्होंने अपने पूरे कार्यकाल में 10 या इससे भी कम सवाल पूछे।
ø इस पर भी पैसे लेकर सवाल पूछने का मामला सामने आ गया और दस सासदों को बर्खास्तगी झेलनी पड़ी।
यह कैसी आजादी
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जागो सोने वालों...
मंगलवार, 6 जुलाई 2010
आखिर कब तक चलेगा यह सब ??
भारतीय खाद्य निगम [एफसीआई] के हापुड़ डिपो में पंजाब से आई गेहूं की ढाई लाख बोरियां खुले में रखी थी जो रविवार और सोमवार को हुई बरसात में भींगने से खराब हो गई। निगम के हापुड़ डिपो में पंजाब से 13 स्पेशल मालगाड़ियों से लाए गए ढ़ाई लाख गेहूं बोरे खुले में छोड़ दिए गए |
कुछ ऐसी ही खबर गुजरात के वलसाड से भी आ रही है ........ वहाँ भी करोड़ों रुपये का गेहूं बारिश में रखा हुआ है और सरकार चैन से सो रही है !
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कितनी बढ़िया बात है ना ....................जिस देश में जहाँ एक दिन पहले बंद रखा गया था बढती हुयी कीमतों के विरोध में .............उसी देश आज करोड़ों रुपये का गेहूं बारिश से बर्बाद हो गया और अब बात हो रही है इस पर जांच करवाने की !!
आपको क्या लगता है यह पहली बार हुआ है ................ नहीं साहब नहीं ......... पिछले साल भी कोलकाता के खिदिरपुर बंदरगाह में लाखों टन दाल सड़ गई थी |
देखें :-
बंदरगाह में सड़ गई लाखों टन दाल
क्या कर लिया था तब किसी ने जो अब कुछ किया जायेगा ! पर सवाल यह पैदा होता है सरकार कब तक जनता के खून पसीने की कमाई को युही बर्बाद करती रहेगी ??आखिर कब हम लोगो को वह सब मिलेगा जिस का सपना लगातार ६३ सालो से देख रहे है हम ??
कब आखिर कब ???
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जागो सोने वालो...