पिछले सप्ताह जब से 'द टाइम्स-क्यूएस' की दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैंकिंग जारी हुई है, देश में अपने विश्वविद्यालयों की दशा को लेकर हंगामा मचा हुआ है। वजह यह कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ पहले 10 या 50 या 100 या फिर 150 विश्वविद्यालयों की सूची में भारत का कोई विश्वविद्यालय जगह नही बना पाया है।
यही नहीं, सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों की सूची में 163वें स्थान पर आईआईटी मुंबई और 181वें स्थान पर आईआईटी दिल्ली को जगह मिल सकी है, जबकि लोकप्रिय और वास्तविक अर्थो में आईआईटी को विश्वविद्यालय नहीं माना जाता है।
यह सचमुच चिंता और अफसोस की बात है कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों की सूची में दो आईआईटी को छोड़कर देश का कोई विश्वविद्यालय जगह बना पाने में कामयाब नहीं हुआ है। इससे देश में उच्च शिक्षा की मौजूदा स्थिति का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है, लेकिन इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है।
ऐसा नहीं है कि यह सच्चाई सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैंकिंग जारी होने के बाद पहली बार सामने आई है। यह एक तथ्य है कि पिछले कई वर्षो से जारी हो रही इस वैश्विक रैंकिंग में भारत के विश्वविद्यालय अपनी जगह बना पाने में लगातार नाकामयाब रहे हैं।
सवाल है कि इस वैश्विक रैंकिंग को कितना महत्व दिया जाए? यह भी एक तथ्य है कि 'द टाइम्स-क्यूएस' की विश्वविद्यालयों की सालाना वैश्विक रैकिंग रिपोर्ट और ऐसी अन्य कई रिपोर्टो की प्रविधि और चयन प्रक्रिया पर सवाल उठते रहे हैं। इस रैकिंग में विकसित और पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों के प्रति झुकाव और आत्मगत मूल्याकन की छाप को साफ देखा जा सकता है, लेकिन इन सबके बावजूद दुनिया भर के शैक्षणिक समुदाय में इस वैश्विक विश्वविद्यालय रैंकिंग की मान्यता और स्वीकार्यता बढ़ती ही जा रही है। उसकी अपनी ही एक करेंसी हो गई है।
दरअसल, इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि पिछले दो दशकों में उच्च शिक्षा का जो वैश्विक बाजार बना है, उसके लिए विश्वविद्यालयों की इस तरह की रैंकिंग एक अनिवार्य शर्त है। यह रैंकिंग वैश्विक शिक्षा बाजार के उन उपभोक्ताओं के लिए है, जो बेहतर अवसरों के लिए विश्वविद्यालय चुनते हुए इस तरह की रैंकिंग को ध्यान में रखते हैं।
निश्चय ही, इस तरह की रैंकिंग से सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों को न सिर्फ संसाधन जुटाने में आसानी हो जाती है, बल्कि वे दुनिया भर से बेहतर छात्रों और अध्यापकों को भी आकर्षित करने में कामयाब होते हैं। इस अर्थ में, सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों की सूची में आईआईटी को छोड़कर एक भी भारतीय विश्वविद्यालय के न होने से साफ है कि भारत उच्च शिक्षा के वैश्विक बाजार में अभी भी आपूर्तिकर्ता नहीं, बल्कि उपभोक्ता ही बना हुआ है।
आश्चर्य नहीं कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद अभी भी देश से हर साल लाखों छात्र उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका से लेकर आस्ट्रेलिया तक के विश्वविद्यालयों की ओर रुख कर रहे हैं। यही नहीं, 'ब्रेन ड्रेन' रोकने और 'ब्रेन गेन' के दावों के बीच अब भी सैकड़ों प्रतिभाशाली शिक्षक और शोधकर्ता विदेशों का रुख कर रहे हैं।
इस मायने में वैश्विक विश्वविद्यालयों की यह रैंकिंग उच्च शिक्षा के कर्ता-धर्ताओं को न सिर्फ वास्तविकता का सामना करने का एक मौका देती है, बल्कि एक तरह से चेतावनी की घटी है। वह इसलिए कि दोहा दौर की व्यापार वार्ताओं के तहत सेवा क्षेत्र को व्यापार के लिए खोलने की जो बातचीत चल रही है, उसमें भारत अपने उच्च शिक्षा क्षेत्र को खोलने के लिए तत्पर दिख रहा है।
इस तत्परता का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में बुलाने के लिए कुछ ज्यादा ही उत्साहित दिख रहे हैं।
लेकिन सवाल यह है कि जब भारत और उसके विश्वविद्यालय वैश्विक शिक्षा बाजार में कहीं नहीं हैं तो उच्च शिक्षा का घरेलू बाजार विदेशी शिक्षा सेवा प्रदाताओं या विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए खोलने के परिणामों के बारे में क्या यूपीए सरकार ने विचार कर लिया है?
क्या ऐसे समय में, जब भारतीय विश्वविद्यालय विकास और गुणवत्ता के मामले में विकसित और पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों से काफी पीछे हैं, उस समय विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए देश के दरवाजे खोलने का अर्थ उन्हें एक असमान प्रतियोगिता में धकेलना नहीं होगा? क्या इससे देसी विश्वविद्यालयों के विकास पर असर नहीं पड़ेगा?
निश्चय ही इन सवालों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है, लेकिन ऐसा लगता है कि यूपीए सरकार उच्च शिक्षा में बुनियादी सुधार और बेहतरी के लिए देसी विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता बढ़ाने के वास्ते उन्हें जरूरी संसाधन और संरक्षण मुहैया कराने के बजाय गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का जिम्मा विदेशी विश्वविद्यालयों को सौंपकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहती है।
हालाकि कपिल सिब्बल उच्च शिक्षा में सुधार के बड़े-बड़े दावे कर रहे हैं, लेकिन सच्चाई यही है कि वे उच्च शिक्षा क्षेत्र में बुनियादी सुधार के बजाय जहां-तहां पैबंद लगाने की कोशिश कर रहे हैं। हकीकत यह है कि यूपीए सरकार को उच्च शिक्षा में पैबंद लगाने और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप और निजी क्षेत्र को बढ़ाने जैसे पिटे-पिटाए फार्मूलों को फिर से आजमाने के बजाय उन बुनियादी सवालों और समस्याओं से निपटने की ईमानदार कोशिश करनी चाहिए, जिनकेकारण उच्च शिक्षा एक शैक्षणिक जड़ता से जूझ रही है।
आज वास्तव में जरूरत यह है कि इस शैक्षणिक जड़ता को तोड़ने के लिए उच्च शिक्षा और विश्वविद्यालयों में शैक्षणिक पुनर्जागरण के लिए उपयुक्त माहौल बनाया जाए। इसके लिए विश्वविद्यालयों के व्यापक जनतात्रिक पुनर्गठन के साथ-साथ उन्हें वास्तविक स्वायत्तता और शैक्षणिक स्वतंत्रता उपलब्ध कराना जरूरी है।
असल में, आज देश में उच्च शिक्षा के सामने तीन बुनियादी चुनौतिया हैं- उच्च शिक्षा के विस्तार, उसमें देश के सभी वर्गो के समावेश और उसकी गुणवत्ता सुनिश्चित करने की। इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि सरकार उच्च शिक्षा के लिए पर्याप्त संसाधन और वित्तीय मदद मुहैया कराए, लेकिन अफसोस की बात यह है कि आर्थिक सुधारों की शुरुआत के बाद 90 के दशक में उच्च शिक्षा के बजट में लगातार कटौती हुई, जिसका नतीजा यह हुआ कि अधिकाश विश्वविद्यालयों में न सिर्फ पठन-पाठन पर असर पड़ा, बल्कि वे छोटी-छोटी शैक्षणिक जरूरतों और संसाधनों से भी महरूम हो गए।
एक अंतरराष्ट्रीय शोध रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया के विकसित देशों की तो बात ही छोड़ दीजिए, ब्रिक देशों [ब्राजील, रूस, भारत और चीन] में उच्च शिक्षा में प्रति छात्र सबसे कम व्यय भारत में होता है। आश्चर्य नहीं कि वैश्विक विश्वविद्यालयों की रैंकिंग में पहले 200 विश्वविद्यालयों की सूची में हमारे पड़ोसी देश चीन के कई विश्वविद्यालयों के नाम हैं, लेकिन भारत के विश्वविद्यालय उस सूची में जगह नहीं बना पाए।
ऊपर से तुर्रा यह कि यूपीए सरकार अब विश्वविद्यालयों को अपने बजट का कम से कम 20 प्रतिशत खुद जुगाड़ने के लिए कह रही है।
यही नहीं, इस समय उच्च शिक्षा पर बजट बढ़ाने और 11वीं पंचवर्षीय योजना में शिक्षा को सबसे अधिक महत्व देने के यूपीए सरकार के तमाम बड़े-बड़े दावों के बावजूद सच यह है कि सरकार उच्च शिक्षा पर जीडीपी का 0.39 प्रतिशत से भी कम खर्च कर रही है। इसकी तुलना में, चीन उच्च शिक्षा पर इसके तीन गुने से भी अधिक खर्च कर रहा है।
असल में, वैश्विक रैकिंग में जगह न बना पाने से अधिक चिंता की बात यह है कि आजादी के 60 सालों बाद भी उच्च शिक्षा के विस्तार की हालत यह है कि देश में विश्वविद्यालय जाने की उम्र के सिर्फ दस फीसदी छात्र ही कालेज या विश्वविद्यालय तक पहुंच पाते हैं, जबकि विकसित और पश्चिमी देशों में 35 से 50 फीसदी छात्र विश्वविद्यालयों में पहुंचते हैं। आश्चर्य नहीं कि मानव विकास सूचकाक में भी भारत 183 देशों की सूची में 134वें स्थान पर है।
आखिर मानव विकास में फीसड्डी होकर कोई देश सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैंकिंग में जगह कैसे बना सकता है?
जो हमसे हैं बेहतर
'द टाइम्स-क्यूएस' 2009 की इस रैंकिंग में अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी पहले स्थान पर बरकरार है। ब्रिटेन की कैंब्रिज यूनिवर्सिटी एक पायदान चढ़कर दूसरे स्थान पर आ गई है। वहीं, अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी एक पायदान खिसककर तीसरे नंबर पर पहुंच गई है। यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन को इंपीरियल कॉलेज, लंदन के साथ पाचवें स्थान पर संयुक्त रूप से जगह दी गई है।
रिपोर्ट में ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों की तारीफ कहा गया है कि इस रैंकिंग में ब्रिटेन ने अपना वजन बढ़ाया है, लेकिन इसके बावजूद वह अमेरिका से पीछे है। टाप-10 और टाप-100 में ब्रिटेन के क्रमश: चार और 18 विश्वविद्यालयों ने जगह बनाई है। टाप-100 में एशियाई विश्वविद्यालयों की संख्या 14 से बढ़कर 16 हो गई है। इनमें टोक्यो यूनिवर्सिटी ने इस रैंकिंग में शीर्ष 22वा स्थान हासिल किया है, जबकि हागकाग यूनिवर्सिटी को 24वा स्थान मिला है।
वहां शिक्षण के प्रति समर्पण ज्यादा है
पश्चिमी और यूरोपीय विश्वविद्यालयों का इतिहास भले ही 500-600 वर्ष पुराना हो, लेकिन पश्चिमी शिक्षा जिसे हम बार-बार आदर्श के रूप में देखते हैं, वह बहुत पुरानी नहीं हैं। इसमें समय के साथ बदलाव भी होते रहे हैं। दूसरे, विदेशों में उच्च शिक्षा में शोध को बहुत महत्व दिया जाता है।
ऐसा नहीं है कि विदेशों में लोग अध्यापन को पैसों से नहीं जोड़ते, लेकिन वहां अध्यापकों में शिक्षा के लिए समर्पण हमसे ज्यादा है। सबसे बड़ी बात तो यह भी है कि पश्चिमी देशों में शोधकार्यो को भी बढ़ावा दिया जाता रहा है। विश्वविद्यालय प्रशासन शोध से जुड़ी किसी भी जरूरतों में कोई कमी नहीं छोड़ते हैं।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रख्यात अर्थशास्त्री जेके मेहता अर्थशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष थे। उस समय जो लोग टॉप किया करते थे, उनका चयन विदेशी विश्वविद्यालयों में तदर्थ रूप से पढ़ाने के लिए हो जाया करता था। एक विद्यार्थी जिसका चयन विदेशी विश्वविद्यालय में शिक्षक और आईएएस, दोनों ही जगहों पर हो गया, वह मेहता साहब से सलाह लेने गया कि मैं किसी बतौर कैरियर अपनाऊं?
मेहता साहब ने पूछा- विश्वविद्यालय में तो तुम्हारा चयन स्थाई रूप से हो ही जाएगा। उसके बाद तुम रीडर बनना चाहोगे, और फिर प्रोफेसर। छात्र ने कहा, 'हां।' मेहता साहब ने कहा इसका मतलब तुम नौकरी करना चाहते हो शिक्षक नहीं बनना चाहते। जब नौकरी ही करना चाहते हो तो तुम्हारे लिए आईएएस ही ठीक है।
भारतीय विश्वविद्यालयों के प्रदर्शन में कमी का एक और जो बड़ा कारण है, वह यह कि हमारे यहां का अच्छा छात्र तो विदेश चला जाता है और औसत छात्र यहीं रह जाता है। जबकि हमारे यहां जो विदेशी छात्र आते हैं, वे सामान्य दर्जे के होते हैं। पहले जो अध्यापक होते थे, वे भले ही पीएचडी न हों, लेकिन शोध करने और सीखने के प्रति उनकी रुचि रहती थी। वह शिक्षा और छात्रों के भविष्य के प्रति गंभीर रहते थे, लेकिन अब इन प्रवृत्तियों में गिरावट आई है। इसके पीछे कहीं न कहीं सरकारी उदासीनता और लोगों की व्यक्तिगत स्तर पर मानसिकता में बदलावों को भी जिम्मेवार ठहराया जा सकता है।
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भाई साहब, जब यूपीए सरकार की पालनहार खुद और उनका बेटा तक विदेश में पढ़ा हुआ हो तो क्या फर्क पड़ता है अगर यहाँ का युवा भी विदेश जा कर पढना चाहे ?? हुआ करे 'ब्रेन ड्रेन' !! किस को फर्क पड़ता है यहाँ ?! अगर शिक्षा के ऊपर पड़ा कफ़न हटाया गया तो कौन झेलेगा आती हुयी बदबू को ?? चिंता है उच्च शिक्षा की मौजूदा स्थिति की जबकि बेसिक शिक्षा का हाल और भी बुरा है !!
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कपिल सिब्बल साहब, उच्च शिक्षा तो हमारे युवा तब लेगे ना जब उनके पास बेसिक शिक्षा हो ?? सो कदम कदम चले.... बहुत लम्बी कूदने की ना सोचे !!
वैसे आप मंत्री है .....ज्यादा जानते है .....हम तो सिर्फ़ जनता है जो आप करोगे हमारी भलाई के लिए ही करोगे .....एसा हम मानते है !!
बाकी कोई बात बुरी लगी हो तो अज्ञानी समझ माफ़ करे वह क्या है ना हमे तो उच्च शिक्षा मिली ही नहीं !! अपन तो बस एसे ही आदत के मारे कहते है .................जागो सोने वालो ..........