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गुरुवार, 22 जुलाई 2010

एक सवाल - क्यों कहें हम इन्हें माननीय?

इन्हें हम माननीय कहते हैं। कहें भी क्यों न, ये सरकार के समक्ष जनता का प्रतिनिधित्व जो करते हैं। जनता और सरकार के बीच एक मजबूत कड़ी बनकर आम आदमी के लिए काम करते हैं। इनके हर कदम सराहनीय और अनुकरणीय होते हैं। लेकिन पिछले कुछ समय से हमारे सांसदों और विधायकों की जो छवि सामने आई है, क्या वह इनके माननीय होने पर सवालिया निशान नहीं लगाती ??

कभी सदन में माइक उखाड़ना तो कभी कुर्सी-मेजें तोड़ना। कई बार तो आपस में हाथापाई कर इन लोगों ने सदन को अखाड़ा तक बना डाला। बुधवार को तो हद ही हो गई। बिहार के कुछ माननीयों ने तो स्पीकर पर चप्पल तक फेक दिया। अब प्रश्न यह उठता है कि शर्मसार करने वाली इस घटना के बाद कोई भला इन्हें माननीय क्यों कहे...??

बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और गोवा में जो पॉलिटिकल 'ड्रामा' चल रहा है, उसे राष्ट्रीय स्तर पर सदन में अक्सर चलने वाले 'नाटक' से जोड़ कर देखा जा सकता है। देश की सबसे बड़ी पंचायत में होने वाले हंगामे से राज्य स्तर पर भी नेता खूब 'प्रेरणा' लेते हैं। जनता के प्रति जवाबदेह इन नेताओं की ऐसी करतूत से उनका भले ही कुछ न बिगड़े लेकिन गरीबी, महंगाई की मारी जनता की गाढ़ी कमाई जरूर पानी में बह रही है।

रुपए की बर्बादी

एक संस्था द्वारा कराए गए अध्ययन के आकड़े बताते हैं कि संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर 25,000 रुपये से भी ज्यादा [यानी एक घटे में 15 लाख रुपये] खर्च होते हैं. इस बार की बात करें तो बजट सेशन 385 घंटे का तय हुआ था। इनमें से लोकसभा में 70 घंटे [निर्धारित घंटों का 36%] बर्बाद हुआ। वहीं राज्यसभा की बात करें तो लगभग 45 घंटे यानी निर्धारित घंटों का 28% समय बेकार गया। लोकसभा में 138 घंटे और राज्यसभा में 130 घंटे को इस्तमाल किया गया। इस तरह इस सत्र में कुछ 117 घंटों का समय माननीयों के व्यवधान के कारण बर्बाद हो गया। अध्ययन के मुताबिक इस दौरान लगभग 18 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। एक अनुमान के मुताबिक विधानसभाओं के मामले में भी काफी अधिक खर्च आता है। यानी भ्रष्टाचार के विरोध के नाम पर नाटक करने वाले केवल कुछ विधायकों की करतूत के चलते जनता के करोड़ों रुपये पानी में गए।

जनता बदहाल

यह हाल उस देश के सांसदों का है, जहा के लोगों की प्रति व्यक्ति सालाना आमदनी 38000 रुपये है। जिस बिहार में यह ड्रामा चल रहा है, वहा लोगों की प्रति व्यक्ति सालना आय तो 10000 रुपये से भी कम है।

माल-ए-मुफ्त

सासद-विधायक हंगामा करके ही जनता के पैसे में आग नहीं लगाते हैं, वे उनके पैसे खर्च करने में भी ज्यादा दिमाग नहीं लगाते, ताकि पैसे का अधिकतम सदुपयोग हो सके। संसद में बजट से जुड़े मुद्दों पर चर्चा के लिए दिए जाने वाले समय का औसत वर्ष 1952 से 1979 के बीच 23% था। 1980 के बाद के वर्षो में यह औसत 10% पर पहुंच गया है। 2004 में तो वित्त विधेयक बिना चर्चा के पास हो गया।

खुद पर खर्च

जनता का पैसा बिना सोचे-समझे खर्च करने का नतीजा यह रहा कि सासद अपने ऊपर ही खर्च बढ़ाने में खूब आगे रहे। 1993-94 में प्रति सासद सरकारी खर्च 1.58 लाख रुपये बैठता था। दस साल [2003-04] में ही यह आकड़ा 55.34 लाख पर पहुंच गया। यानी 3,400% का इजाफा! इसी अवधि में उपभोक्ता मूल्य सूचकाक में 500% और सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह में करीब 900% की बढ़ोतरी दर्ज की गई। पिछले पाच सालों में भी सासदों पर सरकार का खर्च बढ़ा ही है और अब तो सासद अपनी तनख्वाह 80 हजार रुपये प्रति महीना करवाने वाले हैं। यह हाल तब है जब सदन में उनका काम लगातार घट रहा है। 1980 में सदन का सत्र औसतन 143 दिन चलता था, जो 2001 में 90 दिन पर आ गया था।

अगर आप चौदहवीं लोकसभा से जुड़े इन तथ्यों पर गौर फरमाए तो हकीकत जानकार आश्चर्य में पड़ जाएंगे।

ø 2008 में लोकसभा की बैठक मात्र 46 दिन हुई। इतिहास में सबसे कम लोकसभा की कार्यवाही चलाने में सरकार के 440 करोड़ रुपए खर्च हुए।

ø काम की इतनी हड़बड़ी रही कि 17 मिनट में आठ बिल पारित कर दिए गए वह भी बिना किसी बहस के।

ø राज्यसभा ने भी जल्दबाजी दिखाई और 20 मिनट में तीन बिल निपटा दिए गए।

ø जनता के 56 नुमाइंदों ने पाच साल के पूरे कार्यकाल में संसद में एक सवाल पूछने की भी जहमत नहीं उठाई।

ø 67 सासद ऐसे थे, जिन्होंने अपने पूरे कार्यकाल में 10 या इससे भी कम सवाल पूछे।

ø इस पर भी पैसे लेकर सवाल पूछने का मामला सामने आ गया और दस सासदों को बर्खास्तगी झेलनी पड़ी।

यह कैसी आजादी

खास बात यह है कि नेता यह सब जनता और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर करते हैं। संविधान की धारा 19 के तहत तमाम नागरिकों के अभिव्यक्ति के अधिकार को मूल अधिकार का दर्जा दिया गया है। पर इसमें यह भी कहा गया है कि अभिव्यक्ति संविधान के दायरे में होनी चाहिए। नेता अक्सर इसकी अनदेखी करते हैं। संसद में अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 105 के तहत संरक्षित किया गया है।

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जागो सोने वालों...

17 टिप्‍पणियां:

  1. वे विवश हैं अपनी हरकतों के लिए और हम बेबस हैं इसलिए सदा पैदल ही चलते हैं।

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  2. विचारणीय पोस्ट,आखिर हम कब जागेंगे?
    नशे में गाफ़िल जनता कब जागेगी?

    आभार

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  3. सहमत ,विचारणीय विषय उठाया है आपने -मगर लोकतंत्र और संविधान के साए में ऐसे सफोद्पोश और सांसद ?

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  4. बहुत ही सुन्दर, तथ्यपरक और विचारोत्तेजक पोस्ट है ...
    बिना सोचे समझे जाती-धर्म गत अधर पर वोट देने से यही होता रहेगा ... ये सांसदों की गलती नहीं है ... ये जनता की गलती है ... जाने कब हम जागेंगे !

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  5. इसके लिये हमे ही जागरूक होना पड़ेगा। आखिर इन्हे वहां तक भेजने वाले हम जनता ही तो हैं। शानदार चिट्ठा खोल कर रखा है आपने। आभार……॥

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  6. जनता से पहले हम स्‍वयं यह शपथ लें कि कभी किसी भी काम के लिए इनकी चौखट पर सर नहीं झुकाएंगे। मैं रोज ही देखती हूँ कि जो लोग राजनेताओं को रात को गाली दे रहे होते हैं वे सुबह उनके दरबार में हाजिरी बजा रहे होते हैं। सारे ही गलत काम उनके द्वारा कराने की मानसिकता जनता की बन गयी है, इसी कारण उन पर कोई दवाब नहीं बनता है। इसलिए पहले स्‍वयं ही शुरू करें।

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  7. विचारणीय पोस्ट,आखिर हम कब जागेंगे?

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  8. ये होश उड़ा देने वाले बेहद अफसोसजनक आंकड़े है. क्या करे, जब तक लोग दल, जाती, गरीबी के नाम पर वोट देंगे तब तक ये देश और देश में विकास ऐसे ही हाशिए पर रहेगा.

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  9. .
    राजनीति का कुरूप चेहरा दिखाया आपने। शायद वो भी बदलेंगे कभी , शायद हम लोग भी जागेंगे सोते से।

    सुन्दर विचारणीय पोस्ट ।
    .

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  10. शिवम्
    संसद के व्यय का वाजिब प्रश्न आपने उठाया है...मगर लोकतंत्र में संसद का होना ज़रूरी भी मित्र ! पडोसी राष्ट्रों की हालत किसी से छुपी है क्या...लोकतंत्र ही है जो हमारी एकता अखंडता बनाये हुए है.

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  11. malum nahi ye neend kab tutegi..kab khwaab sach hongen !well done sir!!!

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  12. शिवम जी, हालाँकि इनके कृत्य तो ऐसे नहीं, पर कानूनी मजबूरी आडे आती है। और हम क्या कहें, सब कुछ तो आपने कह ही दिया।
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    ये साहस के पुतले ब्लॉगर।
    व्यायाम द्वारा बढ़ाएँ शारीरिक क्षमता।

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  13. आपका यह लेख आज दैनिक जागरण के राष्ट्रिय संस्करण के प्रष्ट न. 9 पर प्रकाशित हुआ है.

    http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2010-07-24&pageno=9

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  14. बहुत ही सुन्दर, तथ्यपरक और विचारोत्तेजक पोस्ट है ...

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  15. काहे के माननीय, दण्डनीय हैं ये तो । पर हम ही इन्हें चुन कर देते हैं तो अब क्या करें चुनाव दर चुनाव हम इन्हें ही चुनकर देते हैं तो भुगतेंगे ही । बढिया पोस्ट ।

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  16. सहीं कहाँ आपने
    http://savanxxx.blogspot.in

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आपकी टिप्पणियों की मुझे प्रतीक्षा रहती है,आप अपना अमूल्य समय मेरे लिए निकालते हैं। इसके लिए कृतज्ञता एवं धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ।