फ़ॉलोअर

सोमवार, 26 जुलाई 2010

विजय दिवस पर विशेष :- नहीं भुलने चाहिए कारगिल युद्ध के सबक

भारत और पाकिस्तान के बीच दुनिया के सबसे ऊंचे रणक्षेत्र में हुए कारगिल युद्ध के बारे में कई रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि यदि हमने इसके सबक को गंभीरता से लिया होता तो मुंबई पर  26 /11 को हुए हमले जैसे हादसे नहीं हुए होते। और रक्षा मामलों में हमारी सोच ज्यादा परिपक्व होती।
कारगिल युद्ध के महत्व का जिक्र करते हुए रक्षा विश्लेषक एवं नेशनल मैरीटाइम फाउंडेशन के निदेशक सी उदय भास्कर ने कहा कि यह युद्ध दो परमाणु शक्ति संपन्न देशों के बीच हुआ। यह युद्ध चूंकि मई 1998 में पोखरण परमाणु विस्फोट के बाद हुआ था, लिहाजा पूरी दुनिया की निगाहें इस पर टिकी थी और भारत ने इसमें स्वयं को एक जिम्मेदार परमाणु शक्ति साबित किया।
भास्कर ने एक बातचीत में कारगिल विजय को भारत की सामरिक जीत करार देते हुए कहा कि अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में इसके परिणामस्वरूप दो बातें सामने आईं। पहली तो पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय साख विशेषकर आतंकवाद को शह देने के कारण काफी खराब हुई। दूसरा कारगिल युद्ध के बाद भारत और अमेरिका के रिश्तों में मधुरता का एक नया दौर शुरू हुआ।
कारगिल युद्ध से सीखे सबक के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि इस युद्ध को 11 साल बीतने के बाद भी हमने इससे कोई सबक नहीं लिया। इस तरह के युद्ध लड़ने के लिए सेना को जिस तरह के ढांचे की जरूरत है, वह आज तक मुहैया नहीं हो सकी है। इसका कारण बहुत हद तक लालफीताशाही है। भास्कर ने कहा कि कारगिल युद्ध की जांच के लिए समितियां बनीं, लेकिन उनकी सिफारिशों पर न तो पूर्व की राजग सरकार और न ही मौजूदा संप्रग सरकार ने कोई गंभीर काम किया। भास्कर ने भी इस बात को स्वीकार किया कि कारगिल युद्ध का एक बहुत बड़ा कारण हमारी खुफिया तंत्र की विफलता था। उन्होंने कहा कि कारगिल युद्ध में हुई गलती से हमने कोई सबक नहीं लिया और इसी कारण मुंबई में 26/11 के आतंकी हमले हुए। रक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि मुंबई हमला 'समुद्री कारगिल' था। रक्षा विशेषज्ञ और इंडियन डिफेंस रिव्यू पत्रिका के संपादक भरत वर्मा के अनुसार कारगिल युद्ध से मुख्य तीन बातें सामने आईं। राजनीतिक नेतृत्व द्वारा निर्णय लेने में विलंब, खुफिया तंत्र की नाकामी और रक्षा बलों में तालमेल का अभाव। उन्होंने कहा कि कारगिल के सबक को यदि हमनें गंभीरता से नहीं लिया तो मुंबई जैसे आतंकी हमले लगातार जारी रहेंगे।
उन्होंने कहा कि कारगिल युद्ध के दौरान दुश्मन हमारी जमीन में अंदर तक घुस आया, लेकिन हमारे राजनीतिक नेतृत्व ने पाकिस्तान में स्कार्दू में प्रवेश कर घुसपैठियों की आपूर्ति को रोकने का निर्णय नहीं किया। यदि हमारा नेतृत्व यह फैसला करता तो इसके दूरगामी परिणाम होते, क्योंकि हम दुश्मन की जमीन में प्रवेश कर जाते और यह उसके लिए आगे तक एक सबक साबित होता, लेकिन हमारे नेतृत्व ने ऐसा नहीं किया और तर्क दिया कि पड़ोसी देश की सीमा में घुसने से युद्ध और लंबा खिंच जाएगा। वर्मा ने कहा कि कारगिल युद्ध के दौरान तीनों सेनाओं के बीच तालमेल का अभाव भी देखा गया, जिसके कारण वायुसेना का हस्तक्षेप थोड़ी देर से हुआ। अगर यह काम पहले हुआ होता तो मरने वाले सैनिकों की संख्या कम होती। कारगिल युद्ध के बारे में बनाई गई समिति की रिपोर्ट की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि इसकी करीब 2,000 पृष्ठों की रिपोर्ट का भी हश्र लगभग वही हुआ जो अन्य जांच समितियों का होता है। इस पर कोई गंभीर बहस नहीं की गई। सेना में हथियारों की खरीद प्रक्रिया सहित स्थितियां आज भी जस की तस हैं।
वर्मा ने कहा कि आज इस बात की बेहद जरूरत है कि हम अपनी शिक्षा में भारत के आधुनिक युद्धों के इतिहास को पढ़ाएं, ताकि आने वाली पीढ़ी सैन्य रणनीतियों के बारे में बुनियादी बातें समझ सके। उन्होंने कहा कि पश्चिमी देशों के विपरीत आज हमारे राजनीतिक नेतृत्व में ऐसे लोगों का बेहद अभाव है जो सैन्य रणनीतियों के बुनियादी तथ्यों से अवगत हों। उन्होंने कहा कि जब हमारे बच्चे पानीपत की लड़ाई के बारे में पढ़ सकते हैं तो भारत-पाक या भारत-चीन युद्ध के बारे में उन्हें जानकारी क्यों नहीं दी जानी चाहिए।
रक्षा विश्लेषक ब्रह्मा चेलानी के अनुसार कारगिल युद्ध का सबसे बड़ा सबक यह है कि पाकिस्तान हर उस स्थिति का फायदा उठाने से पीछे नहीं हटेगा, जहां सुरक्षा या सैन्य तैयारियों में कमी है। उन्होंने कहा कि कारगिल के बाद पाक समर्थित आतंकवादियों के आत्मघाती हमलों में काफी वृद्धि हो गई है। चेलानी ने कहा कि यह युद्ध हमारी धरती पर लड़ा गया और हमने युद्ध जीतकर अपने सैन्य साम‌र्थ्य का पूरी दुनिया को परिचय दिया। उन्होंने कहा कि यह कहना चीजों का बहुत सरलीकरण होगा कि कारगिल युद्ध राजनीतिक नेतृत्व द्वारा फैसले लेने में देरी और खुफिया तंत्र की विफलता के कारण हुआ।
उल्लेखनीय है कि भारत और पाकिस्तान के बीच मई से 26 जुलाई 1999 के बीच जम्मू-कश्मीर के बेहद ऊंचाई वाले क्षेत्र कारगिल में युद्ध हुआ था। इस युद्ध के शुरू होने का कारण पाक सेना द्वारा समर्थित घुसपैठियों का कारगिल में नियंत्रण रेखा के आसपास के क्षेत्रों पर कब्जा करना था।
शुरू में भारतीय सेना ने जब घुसपैठियों के खिलाफ जवाबी कार्रवाई शुरू की तो उसे थोड़ी कठिनाई हुई, क्योंकि दुश्मन उससे ऊँची चोटियों पर बैठे थे, लेकिन बाद में वायुसेना की मदद से भारतीय सेनाओं ने पाक सेना को मुहंतोड़ जवाब दिया और यह पूरा क्षेत्र घुसपैठियों से खाली करवा लिया। पाकिस्तान भारतीय सेना की कार्रवाई से इतना घबरा गया कि उसे अमेरिका जाकर अपने आका से गुहार करनी पड़ी कि युद्ध रोकने के लिए भारत से कहा जाए। कारगिल युद्ध में भारतीय पक्ष की ओर से मारे गए लोगों की आधिकारिक संख्या 5,33 थी, जबकि पाकिस्तानी पक्ष की ओर से करीब 4,000 लोगों के मारे जाने का अनुमान लगाया गया। 

-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
जागो सोने वालों...!!

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

एक सवाल - क्यों कहें हम इन्हें माननीय?

इन्हें हम माननीय कहते हैं। कहें भी क्यों न, ये सरकार के समक्ष जनता का प्रतिनिधित्व जो करते हैं। जनता और सरकार के बीच एक मजबूत कड़ी बनकर आम आदमी के लिए काम करते हैं। इनके हर कदम सराहनीय और अनुकरणीय होते हैं। लेकिन पिछले कुछ समय से हमारे सांसदों और विधायकों की जो छवि सामने आई है, क्या वह इनके माननीय होने पर सवालिया निशान नहीं लगाती ??

कभी सदन में माइक उखाड़ना तो कभी कुर्सी-मेजें तोड़ना। कई बार तो आपस में हाथापाई कर इन लोगों ने सदन को अखाड़ा तक बना डाला। बुधवार को तो हद ही हो गई। बिहार के कुछ माननीयों ने तो स्पीकर पर चप्पल तक फेक दिया। अब प्रश्न यह उठता है कि शर्मसार करने वाली इस घटना के बाद कोई भला इन्हें माननीय क्यों कहे...??

बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और गोवा में जो पॉलिटिकल 'ड्रामा' चल रहा है, उसे राष्ट्रीय स्तर पर सदन में अक्सर चलने वाले 'नाटक' से जोड़ कर देखा जा सकता है। देश की सबसे बड़ी पंचायत में होने वाले हंगामे से राज्य स्तर पर भी नेता खूब 'प्रेरणा' लेते हैं। जनता के प्रति जवाबदेह इन नेताओं की ऐसी करतूत से उनका भले ही कुछ न बिगड़े लेकिन गरीबी, महंगाई की मारी जनता की गाढ़ी कमाई जरूर पानी में बह रही है।

रुपए की बर्बादी

एक संस्था द्वारा कराए गए अध्ययन के आकड़े बताते हैं कि संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर 25,000 रुपये से भी ज्यादा [यानी एक घटे में 15 लाख रुपये] खर्च होते हैं. इस बार की बात करें तो बजट सेशन 385 घंटे का तय हुआ था। इनमें से लोकसभा में 70 घंटे [निर्धारित घंटों का 36%] बर्बाद हुआ। वहीं राज्यसभा की बात करें तो लगभग 45 घंटे यानी निर्धारित घंटों का 28% समय बेकार गया। लोकसभा में 138 घंटे और राज्यसभा में 130 घंटे को इस्तमाल किया गया। इस तरह इस सत्र में कुछ 117 घंटों का समय माननीयों के व्यवधान के कारण बर्बाद हो गया। अध्ययन के मुताबिक इस दौरान लगभग 18 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। एक अनुमान के मुताबिक विधानसभाओं के मामले में भी काफी अधिक खर्च आता है। यानी भ्रष्टाचार के विरोध के नाम पर नाटक करने वाले केवल कुछ विधायकों की करतूत के चलते जनता के करोड़ों रुपये पानी में गए।

जनता बदहाल

यह हाल उस देश के सांसदों का है, जहा के लोगों की प्रति व्यक्ति सालाना आमदनी 38000 रुपये है। जिस बिहार में यह ड्रामा चल रहा है, वहा लोगों की प्रति व्यक्ति सालना आय तो 10000 रुपये से भी कम है।

माल-ए-मुफ्त

सासद-विधायक हंगामा करके ही जनता के पैसे में आग नहीं लगाते हैं, वे उनके पैसे खर्च करने में भी ज्यादा दिमाग नहीं लगाते, ताकि पैसे का अधिकतम सदुपयोग हो सके। संसद में बजट से जुड़े मुद्दों पर चर्चा के लिए दिए जाने वाले समय का औसत वर्ष 1952 से 1979 के बीच 23% था। 1980 के बाद के वर्षो में यह औसत 10% पर पहुंच गया है। 2004 में तो वित्त विधेयक बिना चर्चा के पास हो गया।

खुद पर खर्च

जनता का पैसा बिना सोचे-समझे खर्च करने का नतीजा यह रहा कि सासद अपने ऊपर ही खर्च बढ़ाने में खूब आगे रहे। 1993-94 में प्रति सासद सरकारी खर्च 1.58 लाख रुपये बैठता था। दस साल [2003-04] में ही यह आकड़ा 55.34 लाख पर पहुंच गया। यानी 3,400% का इजाफा! इसी अवधि में उपभोक्ता मूल्य सूचकाक में 500% और सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह में करीब 900% की बढ़ोतरी दर्ज की गई। पिछले पाच सालों में भी सासदों पर सरकार का खर्च बढ़ा ही है और अब तो सासद अपनी तनख्वाह 80 हजार रुपये प्रति महीना करवाने वाले हैं। यह हाल तब है जब सदन में उनका काम लगातार घट रहा है। 1980 में सदन का सत्र औसतन 143 दिन चलता था, जो 2001 में 90 दिन पर आ गया था।

अगर आप चौदहवीं लोकसभा से जुड़े इन तथ्यों पर गौर फरमाए तो हकीकत जानकार आश्चर्य में पड़ जाएंगे।

ø 2008 में लोकसभा की बैठक मात्र 46 दिन हुई। इतिहास में सबसे कम लोकसभा की कार्यवाही चलाने में सरकार के 440 करोड़ रुपए खर्च हुए।

ø काम की इतनी हड़बड़ी रही कि 17 मिनट में आठ बिल पारित कर दिए गए वह भी बिना किसी बहस के।

ø राज्यसभा ने भी जल्दबाजी दिखाई और 20 मिनट में तीन बिल निपटा दिए गए।

ø जनता के 56 नुमाइंदों ने पाच साल के पूरे कार्यकाल में संसद में एक सवाल पूछने की भी जहमत नहीं उठाई।

ø 67 सासद ऐसे थे, जिन्होंने अपने पूरे कार्यकाल में 10 या इससे भी कम सवाल पूछे।

ø इस पर भी पैसे लेकर सवाल पूछने का मामला सामने आ गया और दस सासदों को बर्खास्तगी झेलनी पड़ी।

यह कैसी आजादी

खास बात यह है कि नेता यह सब जनता और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर करते हैं। संविधान की धारा 19 के तहत तमाम नागरिकों के अभिव्यक्ति के अधिकार को मूल अधिकार का दर्जा दिया गया है। पर इसमें यह भी कहा गया है कि अभिव्यक्ति संविधान के दायरे में होनी चाहिए। नेता अक्सर इसकी अनदेखी करते हैं। संसद में अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 105 के तहत संरक्षित किया गया है।

-------------------------------------------------------------------------------------------------------

जागो सोने वालों...

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

आखिर कब तक चलेगा यह सब ??

लापरवाही के चलते यहां खुले में रखा करोड़ों रुपये का गेहूं बारिश से बर्बाद हो गया। स्थानीय जिलाधिकारी ने मामले की जांच के आदेश दिए हैं।

भारतीय खाद्य निगम [एफसीआई] के हापुड़ डिपो में पंजाब से आई गेहूं की ढाई लाख बोरियां खुले में रखी थी जो रविवार और सोमवार को हुई बरसात में भींगने से खराब हो गई। निगम के हापुड़ डिपो में पंजाब से 13 स्पेशल मालगाड़ियों से लाए गए ढ़ाई लाख गेहूं बोरे खुले में छोड़ दिए गए |

कुछ ऐसी ही खबर गुजरात के वलसाड से भी आ रही है ........ वहाँ भी करोड़ों रुपये का गेहूं बारिश में रखा हुआ है और सरकार चैन से सो रही है !

---------------------------------------------------------------------------------------------------------------

कितनी बढ़िया बात है ना ....................जिस देश में जहाँ एक दिन पहले बंद रखा गया था बढती हुयी कीमतों के विरोध में .............उसी देश आज करोड़ों रुपये का गेहूं बारिश से बर्बाद हो गया और अब बात हो रही है इस पर जांच करवाने की !!

आपको क्या लगता है यह पहली बार हुआ है ................ नहीं साहब नहीं ......... पिछले साल भी कोलकाता के खिदिरपुर बंदरगाह में लाखों टन दाल सड़ गई थी |

देखें :-

बंदरगाह में सड़ गई लाखों टन दाल

क्या कर लिया था तब किसी ने जो अब कुछ किया जायेगा ! पर सवाल यह पैदा होता है सरकार कब तक जनता के खून पसीने की कमाई को युही बर्बाद करती रहेगी ??

आखिर कब हम लोगो को वह सब मिलेगा जिस का सपना लगातार ६३ सालो से देख रहे है हम ??

कब आखिर कब ???

---------------------------------------------------------------------------------------------------------------

जागो सोने वालो...